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भट्टी से कोई दाना किसी प्रकार तिड़ककर बाहर निकल पड़ता है उसी प्रकार बड़ी कठिनाईयों से यह जीव निगोड़ से निकला तो एक इन्द्रीय स्थावर', जीव हुआ । जैसे चिन्तामणी रत्न बड़ी कठिनाई से मिलता है उसी प्रकार त्रसरे जीवों का शरीर पाना बड़ा दुर्लभ है । इस जीव ने किड़ी, भौंरा, भिरड़, आदि शरीरों को बार बार धारण करके महा दुःख सहा । कभी यह बिना मन का पशु हुआ, कभी मन सहित शक्तिशाली सिंह, भौंरा आदि पाँच इन्द्रिय पशु हुआ । तब भी उसने कमजोर पशुओं को मार-मार कर खाया और हिंसा के पाप-फल को भोगता रहा और जब यह जीव स्वयं निर्बल हुआ तो अपने से प्रवल जीवों द्वारा बाँधे जाने, छिदा जाने, भेदा जाने, मारा पीटा जाने, अति बोझ उठाने तथा भूग्व- प्यास आदि के ऐसे महादुःख पशु पर्याय में सहन करने पड़े, जो करोड़ों जबानों से भी वर्णन न किये जा सकें और जब खेड से मरा तो नरक में जा पड़ा, जहाँ कि भूमि को छूने से ही इतना दुःख होता है जो हजारों सर्पों और बिच्छुओं के काटने पर भी नहीं होता । नरक में नारकीय एक दूसरे को मोटे डन्डों से मारते हैं, बरछियों से छेदते हैं और तलवारों से शरीर के टुकड़े-टुकड़े कर देते हैं । नारकीयों का शरीर पारे का होता है, फिर जुड़ जाता है, इस लिये फिर वही मार काट । इस प्रकार हजारों साल तक नरक के महा दुःख भोगे 1
यदि किसी शुभ कर्म से मनुष्य पर्याय भी मिल गई तो यहाँ माता के पेट में बिना किसी हलन चलन के सिकुड़े हुए नौ महीनों तक उल्टा लटकना पड़ा । दरिद्रता में पैसा न होने और अमीरता में तृष्णा का दुःख । कभी स्त्री तथा संतान न होने का खेद । एक दिन में इस जीव को कितनी बार जन्म-मरण करना पड़ता है । -छः ढाला (जैना वाच कम्पनी देहली ७) पृ० ३ । १-२ विस्तार के लिये छः ढाला व रत्नकरण्ड श्रावकाचार देखिये 1
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