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चाहने से उसका बुरा नहीं हो सकता। हां, किसी का बुरा चाहने से मेरे कर्मों का आस्रव होकर मेरी आत्मा मलीन हो, मैं स्वयं अपना बुरा कर लेता हूं। इसी प्रकार जब मेरे अशुभ कर्म आवेंगे तो दूसरे के मेरा बुरा न चाहने पर भी मुझे हानि होगी। और शुभ कर्मों के समय दूसरों के बुरा करने पर भी मुझे लाभ होगा । जब कोई मेरी आत्मा का बुरा नहीं कर सकता, तो शत्रु कौन ? और जब किसी दूसरे से मेरी आत्मा का कल्याण नहीं हो सकता तो मित्र कौन ? मैं स्वयं पांच प्रकार के मिथ्यात्व, बारह प्रकार के अब्रत, पच्चीस प्रकार के कषाय और पन्द्रह प्रकार के योग करके सत्तावन' द्वारों से स्वयं कर्मों का श्रास्रव कर के अपनी आत्मा के स्वाभाविक गुण, अविनाशक सुख व शान्ति की प्राप्ति में रोड़ा अटकाने के कारण स्वयं अपना शत्रु बन जाता है ।
८-संवर-भावना पंच महाव्रत सचरण, समिति पंच परकार ।
प्रबल पंच इन्द्री-विजय, घार निर्जरा सार' ॥ पांच समिति, पांच महाव्रत, दस धर्म, बारह भावना, तीन गुप्ती, बाईस परिषय जय रूपी सत्तावन' हाटों से मैं स्वयं आस्रव (कर्मों का आना) का संवर (रोक थाम) कर सकता हूँ और इस प्रकार अपनी आत्मा को कर्म रूपी मल से मलीन होने से बचा सकता हूं। दूसरा मेरी आत्मा का भला-बुरा करने वाला सारे संसार में कोई शत्रु या मित्र नहीं। १. Whence light reflected by the Science Divine,
Broke tbe Desires onto the dust; Ooward it traced a path to tread For the S. ul to escape from the idea's crust,
8th. Meditation of Stoppage of karmas. * कर्मवाद, खण्ड २।
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