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यह संसार (Universe) जीव (Soul) अजीव (Matter) धर्म (Medium of motion) अधर्म (Medium of rest) काल (Time) आकाश (Space) छः द्रव्यों (Substances) का समुदाय है । ये सब द्रव्य सत रूप नित्य हैं, इस लिये जगत भी सत् रूप नित्य, अनादि और अकृत्रिम है, जिसमें ये जीव देव, मनुष्य, पशु, नरक, चारों गतियों में कर्मानुसार भ्रमण करता हुआ अनादि काल से आवागमन के चक्कर में फंस कर जन्म मरण के दुःखों को भोग रहा है । जिस प्रकार धान से छिलका उतर जाने पर उसमें उगने की शक्ति नहीं रहती, उसी प्रकार जीव आत्मा से कर्म रूपी छिलका उतर जाने पर आत्मा चावल के समान शुद्ध हो जाती है, और उसमें जन्म की शक्ति नहीं रहती और जब जन्म नहीं तो मरण और आवागमन कहां? कर्मों का फल भोगने के लिये ही तो जीव संसार में रुल रहा है। जब शुभ अशुभ दोनों प्रकार के कर्मों की निर्जरा होगई तो फल किस का भोगोगे ? इस लिए संसार के अनादि भ्रमण से मुक्त होने के लिये निजरा से भिन्न और कोई उपाय नहीं।
११-बोधि-दुर्लभ भावना धन कन कंचन राजसुख, सबहि सुलभकर जान ।
दुर्लभ है ससार में एक जथारथ ज्ञान' || १-३. भगवान् महावीर का धर्मोपदेश खण्ड २1. ४. Wealth, gold and the rule.
All are easy to gain ; Hard it's to get in the World A Scientific mind with a Scientific reign. -Ilth. Meditation of the Rarity of Acquiring Enlightenment.
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