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४-एकत्व-भावना आप अकेला अवतरै, मरै अकेला होय ।
यों कबहूँ इस जीव को, साथी सगा न कोय' ॥ मेरी आत्मा अकेली है, अकेले ही कर्म करती है, अकेले ही कर्म का फल भोगती है । स्त्री, पुत्र, मित्र आदि हमारे दुःखों को देख कर चाहे जितना खेद करें, परन्तु जो दुःख हमको हो रहा है उसमें कदाचित कमी नहीं कर सकते । जब वेदनीय कर्म का प्रभाव कम होगा तभी दुःखों में कमी होगी। चारों घातिया कर्मों का संबर तथा निर्जरा भी आत्मा अकेली ही करके अर्हन्त अथवा अघातिया कर्मों को भी काट कर सिद्ध होकर अविनाशी सुखों का अकेले ही आनन्द लूटती है। जब आत्मा का कोई दूसरा साथीसङ्गी नहीं है तो संसारी पदार्थों, कषायों और परिग्रहों को अपनाकर अपनी आत्मा को मलीन करके संसारो बन्धन दृढ़ करने से क्या लाभ ?
५-अन्यत्व-भावना जहां देह अपनी नहीं, तहां न अपनो कोय ।
घर सम्पति पर प्रगट ये, पर हैं परिजन लोय ॥ १. Single Cometh ye,
And goeth alone; Nope saw a Companion That followeth the Soul
--4tb.Mcditation of Solitary Condition of Soul, २. Whence the body thou not,
How otbers are thee; House, wealth and else visible Are aloof from the unseen Ye.
-5tb. Meditation of Soul being seperate from body.
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