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रत्नप्रभा नाम के पहले नरक में गया। वहां के दुःख भोगने के बाद सिंधुकूट के पूर्व हिमगिरि पर्वत पर फिर सिंह हुआ। एक दिन हिरण का शिकार करने के लिये उसके पीछे भाग रहा था कि उसी समय अजितंजय और अमिततेज नाम के दो चारण मुनि वहां आगये । उन्होंने शेर से कहा कि पिछले जन्म में भी तुम शेर ही थे जीव हत्या करने के कारण तुम्हें वर्षों तक नरक के महा दुःख भोगने पड़े । यदि तुम अपना कल्याण चाहते हो तो जीवहत्या तथा मांस भक्षण का त्याग कर दो। शेर ने कहा कि मांस के सिवाय मेरे लिये और कोई भोजन नहीं है । अमिततेज नाम के मुनिराज ने कहा - "दिगम्बर पदवी को त्याग कर तुम ने श्री ऋषभदेव के वचनों आदि का अनादर किया था। इसी मिथ्यात्व के कारण जन्म-मरण, नरक आदि के अनेक दु:ख सहने पड़े । अपने एक जीवन की रक्षा के लिये अनेक जीवों का घात कैसे उचित है ? पिछले पापों के कारण तो तुम आज पशुगति के दुख भोग रहे हो, यदि अब भी मिथ्यात्व को दूर करके सम्यग्दर्शन प्राप्त न किया तो इस आवागमन के चक्कर से न निकल सकोगे ।" मुनिराज के उपदेश से मृगराज की आंखें खुल गईं । आत्मा की वाणी को आत्मा क्यों न समझे ! सिंह की आत्मा में भी ज्ञान तो था, परन्तु ज्ञानावर्णी कर्म के कारण वह गुण ढका हुआ था । योगीराज अजितञ्जय ने उसका परदा हटा दिया, सिंह को पहले जन्मों की याद आ गई जिससे उसका हृदय इतना दुखी हुआ कि उसकी आंखों से टप टप आंसू पड़ने लगे हो गई। उसने तुरन्त ही मांस भक्षण तथा प्रतिज्ञा करली । मुनिराज के वचनों में पूरा सम्यग्दर्शन प्राप्त हो गया । सम्यग्दर्शन से वस्तु तो सारे संसार में कोई नहीं है, हर प्रकार के तथा स्वर्ग की विभूतियों का तो कहना ही क्या है,
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शिकार से उसे घृणा जीव - हिंसा के त्याग की श्रद्धान करने से उसे अधिक कल्याणकारी
संसारी सुखों मोक्ष तक के
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