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सुख बिना इच्छा के आप से आप ही प्राप्त हो जाते हैं। हिंसा के त्याग और सम्यग्दर्शन की प्राप्ति का फल यह हुआ कि मर कर वे सौधर्म नाम के पहले स्वर्ग में सिंहकेतु नाम का महान् ऋद्धियों का धारो देव हुआ । जहाँ से वह अकृत्रिम चैत्यालय में जाकर श्रेष्ठ द्रव्यों सहित अर्हन्त देव की पूजा किया करता था । मनुष्य लोक नन्दीश्वरादि द्वीपों में जिनेन्द्र भगवान् की प्रतिमाओं की पूजा तथा मुनियों की भक्तिपूर्वक बन्दना करता था ।
राज्यपद
स्वर्ग में भी अर्हन्त भक्ति करने के पुण्य फल से मैं विजयार्द्ध पर्वत के उत्तर की तरफ कनकप्रम नाम के देश में विद्याधरों के राजा पंख की कनकमाला नाम की रानी से कनकोज्वल नाम का बड़ा पराक्रमी और धर्मात्मा राजकुमार हुआ । निग्रंथ मुनि के उपदेश से प्रभावित होकर और संसारी सुखों को क्षणिक जान कर भरी जवानी में दीक्षा लेकर जैन साधु हो गया और तप कर के लांतवें नाम के सातवें स्वर्ग में महा ऋद्धिधारी देव हुआ, वहां भी वह सम्यग्दृष्टि शुभ ध्यान तथा जिन पूजा में लीन रहता था, जिस के पुण्य फल से वह अयोध्या नगरी के राजा बज्रसेन की रानी शीलवती से हरिषेण नाम का बड़ा बुद्धिमान् राजकुमार हुआ । राजनीतिक के साथ-साथ जैन सिद्धान्तों का बड़ा विद्वान् था । मैं श्रावक धर्म को भलि भांति पालता था। एक दिन विचार कर रहा था कि मैं कौन हूँ? मेरा शरीर क्या है ? स्त्री, पुत्र आदि क्या मेरे हैं और कुछ मेरा लाभ कर सकते हैं ? मेरी तृष्णा किस प्रकार शान्त होगी ? तो मुझे संसार महाभयानक दिखाई पड़ा, वैराग्य भाव जाग्रत हो गए और श्री श्रुतसागर नाम के निर्ग्रन्थ मुनि से दीक्षा लेकर मैं जैन साधु हो गया । दर्शन,
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