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जैनधर्म नास्तिक नहीं है
रा० रा० श्री वासुदेव गोविंद आपटे बी० ए०
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शंकराचार्य' ने जैनयर्म को नास्तिक कहा है कुछ और लेखक भी इसे नास्तिक समझते हैं लेकिन यह आत्मा, कर्म और सृष्टि को नित्य मानता है । ईश्वर की मौजूदगी को स्वीकार करता है और कहता है कि ईश्वर तो सर्वज्ञ, नित्य और मङ्गलस्वरूप है | आत्माकर्म या सृष्टि के उत्पन्न करने या नाश करने वाला नहीं है । और न ही हमारी पूजा, भक्ति और स्तुति से प्रसन्न होकर हम पर विशेष कृपा करेगा । हमें कर्म अनुसार स्वयं फल मिलता है । ईश्वर को कर्ता, या कर्मों का फल देने वाला न मानने के कारण यदि हम जैनियों को नास्तिक कहेंगे तो
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१. (क) जब से मैंमे शंकराचार्य द्वारा जैन सिद्धान्त का खण्डन पढ़ा है तब से मुझे विश्वास हुआ कि जैन सिद्धान्त में बहुत कुछ है, जिसे वेदान्त के आचार्यों ने नहीं समझा। मेरा यह दृढ़ विश्वास है कि यदि वे जैनधर्म को उसके असली ग्रन्थों से जानने का कष्ट उठाते तो उन्हें जैनधन से विरोध करने की कोई बात न मिलती ।
— डा० गङ्गानाथ झाः जैनदर्शन तिथि १६ दिसम्बर १९३५ पृ० १८१ । (ख) बड़े बड़े नामी आचार्यों ने अपने ग्रन्थों में जो जैन मत खंडन किया है, वह ऐसा किया है जिसे सुन, देखकर हंसी आती है । महामहोपाध्याय स्वामी राम मिश्र, जैनधर्मे महत्व [ सूरत ] भा० १, पृ० १५३ |
२- ३. भ० महावीर का धर्मोपदेश, खंड २ ।
४. 'अर्हन्त भक्ति' खंड २ ।
५. 'कर्मवाद' खंड २ ।
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