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भयभीत दशा को देखकर विश्वनन्दी को वैराग्य आ गया और श्री संभूत नाम के मुनि से दीक्षा ले कर जैन-मुनि होगया । इस घटना से विशाखभुति को भी बहुत पश्चात्ताप हुआ कि पुत्र के मोह में फँस कर साधु-स्वभाव विश्वनन्दी का बागीचा विशाखनन्दी को दे दिया. सच तो यह है कि यह समस्त राज्य ही उसका है । जब विश्वनन्दी ने ही भरी जवानी में संसार त्याग दिया तो मुझ वृद्ध को राज्य करना कैसे उचित है ? वह भी जैन-साधु हो गया।
विशाखनन्दी मकान की छत पर बैठा हुआ था कि विश्वनन्दी जिनका शरीर कठिन तपस्या के कारण निर्बल होगया था, आहार के निमित्त नगरी में आये तो असाता कर्म के उदय से एक गउ भागती हुई दूसरी ओर से आई । जिससे मुनि महाराज को धक्का लगा और वह भूमि पर गिर पड़े । विशाखनन्दी ने यह देख कर हंसते हुए कहा कि हाथ से बृक्ष उखाड़ने और कलाई की एक चोट से वज्रमयी खम्भ को तोड़नेवाला वह तुम्हारा बल आज कहाँ है ? आहार में अन्तराय जान कर मुनिराज तो बिना आहार किये सरल स्वभाव जङ्गल में वापिस जाकर फिर ध्यान में लीन होगये, परन्तु विशाखनन्दी मुनिराज की निन्दा करने के पाप फल से सातवें नरक गया, जहां महाक्रोधी और कठोर नारकीयों ने उसे गर्म घी में पकवान के समान पकाया, कोल्हू में उसे गन्ने के समान पीड़ा
और आरे से उसके जीवित शरीर को चीरा, मुद्गरों से पीटा। वर्षों इसी प्रकार उसको नरकों की वेदनाएँ सहनी पड़ी। महामुनि विश्वनन्दी शान्तप्रणाम आयु समाप्त करके तप के प्रभाव से महाशुक्र नाम के दसवें स्वर्ग में देव हुये। विशाखभूति भी तप • के प्रताप से उसी स्वर्ग में देव हुये थे। यह दोनों आपस में प्रेम से स्वर्गों के महासुख भोगते थे ।
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