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महापाप करने पर भी ब्राह्मणों को केवल इस लिये कि ब्राह्मकुल में जन्म लिया, उनकी देवता प्रों का देवता स्वीकार किया जाता था' । पुरोहित लाग हिंसामयी यज्ञ कराने के लिये हर समय तैयार रहते थे, क्योंकि यही उनकी जीविका थी । पापी से पापी ब्राह्मण का भी धमात्माओं के समान आदर सत्कार होता था । ऊँच-नीच का भेद-भाव जोरों पर था । ऐसे भयानक समय में भगवान् महावीर स्वामी ने ससार को बताया कि आत्मा सब जीवों में एक समान है । मनुष्य मनुष्य सब एक हैं अपने कर्मों के विशेष की अपेक्षा से क्षत्रिय, ब्राह्मण, वैश्य और शूद्र चार वर्ण हैं। चारों वर्णवाले जैन धर्म का पालने में परम समर्थ हैं । ब्राह्मण के शरीर पर कोई ऐसा कुदरती चिन्ह नहीं जिससे उसकी प्रधानता नज़र आवे ६ । भगवान् महावीर ने तो स्पष्ट कहा है कि कोई ऊंच जाति में जन्म लेने से ऊँच, और नीच जाति में
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ब्राह्मणः सम्भवे नैव देवानामपि दैवतम् । - मनुस्मृति, ११-८४ । अर्थात् — ब्राह्मण जन्म से ही देवताओं का देवता है ।
पं० अयोध्याप्रसाद गोयलीय ' हमारा उत्थान और पतन, पृ० ६३ |
(क) ज्ञानोदय. भाग २, पृ० ६७३ ।
(ख) आजाद हिन्दुस्तान (१६-४-१९५१), पृ० ३४ ।
४. जैन धर्म और पशु-पक्षी, खण्ड ३ ।
६.
५. विप्रक्षत्रियविटशूद्राः प्रोक्ताः क्रियाविशेषतः । जैनधर्मे पराः शक्तास्ते सर्वे वान्धवोपमाः ॥
- श्री सोमसेन : त्रैवर्णिकाचार, अ. ७, १४२ ॥ अर्थात्–त्राह्मण. क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र चारों वर्ण अपने २ कर्मों के विशेष की अपेक्षा से कहे गये हैं । जैन धर्म को पालन करने में इन चारों वर्णों के मनुष्य परम समर्थ हैं और उसे पालन करते हुए सब आपस में भाई २ के समान हैं ।
श्री गुणभद्राचार्य : उत्तरपुराण, पर्व ७४ ।
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