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जन्म लेने से नीच नहीं होता', बल्कि रागादि कषाय करने से नीच और उनका त्याग करके धर्म सेवन करने वाला उच्च होता है । ब्राह्मण कुल में जन्म लेने वाला दयाभाव नहीं रखता तो वह चाण्डाल है और शूद्र अपने आसन, वस्त्र, आचरण और शरीर को शुद्ध कर लेता है ता वह ब्राह्मण है । व्रती चाण्डाल वास्तव में ब्राह्मण के समान है ४ । जैन धर्म किसी विशेष देश, समाज या जाति की सम्पत्ति नहीं है, चाण्डाल कुल में जन्म लेने वाला जैन साधु होकर तप तक कर सकता है । शूद्र कुल में जन्म लेने वाला यदि जैन धर्म में विश्वास रख कर सम्यग्दृष्टि हा जाये तो वह जिनेन्द्र भगवान् की पूजा तक का अधिकारी हैं । ऐसे अनेक दृष्टान्त मौजूद हैं कि चाण्डालों ने वीर भगवान् के उपदेश से प्रभावित होकर केवल श्रावक धर्म हो नहीं बल्कि मुनि धर्म तक ग्रहण किया ।
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१. जैन धर्म और शद, खण्ड ३ ।
२.
सुत्तनिपात (वसलसुत्त) जिसका हवाला मांसाहार विचार, भाग २, पृ० ५ । शुद्रोऽप्युपस्कराचारवपुः शुध्याऽस्तु तादृशः ।
जात्याहीनोऽपि कालादि लब्धौ ह्यात्मा धर्मभाक् ॥
३.
-- श्रीसागारधर्मामृत, अ० २ ० २२ । अर्थात् -- आसन और वर्तन आदि जिसके शुद्ध हों. मांस और मदिरादि के त्याग से जिसका आचरण पवित्र हो और नित्य स्नान आदि के करने से जिसका शरीर शुद्ध रहता हो, ऐसा शद भी ब्राह्मण आदि वर्णों के सदृश श्रावक धर्म का पालन करने योग्य है 1
४.
न जातिर्गर्हिता काचिद् गुणाः कल्याणकारणम् । ब्रतस्थमपि चाण्डालं तं देवा ब्राह्मणं विदुः ॥
-- श्री रविषेणाचार्य, पद्मपुराण, ११ - २०३ । अर्थात् -- हे देवो ! कोई भी जाति बुरी नहीं है क्योंकि गुण ही कल्याण के करने वाले होते हैं । व्रती चाण्डाल को भी ब्राह्मण जानो ।
५-७ जैनधर्म और श ूद्र धर्म, खण्ड ३ ।
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