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महाराजा भत् हरि की दिगम्बर होने की भावना
एको रागिषु राजते प्रियतमा देहार्धधारी हरी , नीरागेषु जिनो विभुक्तललना संगो न यस्मात्परः । दुर्वारस्मरघस्मरोरगविषज्वालावलाढो जनः, शेषोमोह विजृम्भितो हि विषयान् भोक्तु न मोक्तु क्षमः ॥ ७१ ।।
-श्रीमत् भर्तहरिकृत शतकत्रय । अर्थात्-प्रेमियों में एक शिवजी मुख्य हैं, जो अपनी प्यारी पार्वतीजी को सर्वदा अर्धाग लिये रहते हैं और त्यागियों में जैनियों के देव जिन भगवान ही मुख्य हैं, स्त्रियों का संग छोड़ने वाला उनसे अधिक कोई दूसरा नहीं है और शेष मनुष्य तो मोह से ऐसे जड़ हो गये हैं कि न तो विषयों को भोग ही सकते हैं और न छोड ही सकते हैं।
महाराजा भर्तृहरि जी की इच्छा थी कि मैं नग्न दिगम्बर होकर कब कर्मों का नाश करूगा :
एकाकी निस्पृहः शान्त पाणिपात्रो दिगम्बर: । कदा शम्भो भविष्यामि कर्मनिर्मूलनक्षमः ।। ५८ ।।
-वैराग्य शतक, पृ० १०७ अर्थात-हे शम्भो, मैं अकेला इच्छारहित, शांत, पाणिपात्र और दिगम्बर होकर कर्मों का नाश कब कर सकूगा ?
१. लक्ष्मीनारायण प्रेस मुरादाबाद की सं. १६८२ की छपी हुई पं० गङ्गाप्रसादकृत
भाषा टीका के शृङ्गार शतक का ७१ वां शोक ।
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