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महाराजा श्रेणिक बिम्बसार की वीर-भक्ति "जै जै केवल ज्ञान प्रकाश, लोकालोक करण प्रतिमास । ४५ । जय भव कुमुद विकासन चन्द, जय २ सेंवत मुनिवर वृन्द । ४६ । आज ही शीश सुफल मो भयो, जब जिन तुम चरणन को नयो । ४७ । नेत्र युगल प्रानन्दे जवे, तुम पद कमल निहारे तवे । ५० । कानन सुफल सुणि धुन धरि, रसना सुफल पावै धुन भरी। ५१ । ध्यान धरत हिरदै अति भयो, कर जुग सुफल पूजते भयो। ५२ । जन्म धन्य अब हो मो भयो, पाप कलंक सकल भजी गयो। ५३ । .मो करुणा कर जिनवर देव, भव भव में पाऊँ तुम सेव" ॥ ५४ ॥
-तरेपन क्रिया, अध्याय १ ,पृ० ४-५ हे भगवान महावीर ! आपकी जय हो। आप केवल ज्ञान रूपी लक्ष्मी से शांभित हैं, जिस के कारण लोक-परलाक के समस्त पदार्थों को हाथ की रेखा के समान दर्शाने वाले हो । भव्य जीवों के हृदयरूपी कमल को खिलाने के लिये आप सूर्य के समान हैं। मुनीश्वर तक भी श्राप की सेवा करते हैं। श्राप के चरणों में झुक जाने के कारण आज मेरा मस्तक भी सफल हो गया । आपके दर्शन करने से मेरी दोनों आंखें आनन्दमयी हो गईं। आप का उपदेश सुनने से मेरे दोनों कान शुद्ध हो गये और आप की स्तुति करने से मेरी जबान पवित्र हो गई। आपका ध्यान करने से मेरा हृदय निर्मल हो गया, आप की पूजा करने से मेरे दोनों हाथ सफल हो गये। आपके दर्शनों से मेरे पापों का नाश होकर आज धन्य है कि मेरा नर-जन्म सफल हो गया। दया के सागर श्री जिनेन्द्र भगवान् अब तो केवल मेरी यही अभिलाषा है कि हर । भव और हर जन्म में आप को पाउँ और आप की सेवा करूं'। १. विशेषता के लिए देखिए "महाराजा श्रेणिक और जैनधर्म' तथा “महाराजा अशोक पर वीर प्रभाव" ।
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