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पद्मनन्दिपश्चविंशतिका ।
उत्तमतीर्थ बन जाती है तथा उन यतश्विरोंको हाथ जोड़ मस्तक नवाकर बड़े २ देव आकर नमस्कार करते हैं तथा उनके स्मरणमात्रसे ही जीवों के समस्त पाप गल जाते हैं इसलिये यतीश्वरोंको सदा ध्यानमें लीन रहना चाहिये ॥ ६९ ॥ शार्दूलविक्रीड़ित ।
सम्यग्दर्शनवृत्तवोधनिचितः शान्तः शिषी मुनिः मन्दैः स्यादवधीरितोऽपि विशदः साम्यं यदालम्ब्य ते । आत्मा तैर्विहतो यदत्र विषमध्वान्तश्रिते निश्चितं सम्पातो भवितोग्रदुःखनरके तेषामकल्याणिनाम् ॥ ७० ॥ अर्थः- सम्यग्दर्शन सम्यग्ज्ञान सम्यक्चारित्रकाधारी तथा शांत और मोक्षाभिलाषी जोमुनि दुष्टोंसे अपमानित होकरभी स्वच्छ करणसे समताको धारण करता है उसकी तो आत्मा शुद्धही होती है किन्तु जो उनकी निन्दा करनेवाले हैं उन्होंने अपनी आत्माका घात कर लिया क्योंकि वे दुष्ट कल्याणरहित पुरुष एसेनरक में गिरेंगे जो नरक भयंकर अंधकार से व्याप्त हैं तथा कठिन दुःखका स्थान है इसलिये मुनियोंको चाहिये कि दुष्ट कैसी भी निंदा करें तोभी उनको समताही धारण करनी योग्य है ॥ ७० ॥
स्रग्धरा ।
मानुष्यं प्राप्य पुण्यात्प्रशममुपगता रोगवद्भोगजालं मत्वा गत्वा वनांतं दृशि विदि चरणे ये स्थिताः संगमुक्ताः कस्तोता वाक्पथातिक्रमणपटुगुणैराश्रितानां मुनीनांस्तोतव्यास्तेमहद्भिर्भुवि य इह तदंघ्रिये भक्तिभाजः अर्थः—पुण्ययोगसे मनुष्यभवको पायकर तथा शान्तिको प्राप्तहोकर और भोगोंको रोगतुल्य जानकर तथा बनमें जाकर समस्त परिग्रहसे रहित होकर जो यतीश्वर सम्यग्दर्शन सम्यग्ज्ञान सम्यक् चारित्र में स्थितहोते हैं बचनागोचर. गुणोंकर सहित उन मुनियोंकी प्रथमतो कोईस्तुतिका करनेवालाही नहीं यदि कोई स्तुतिकरसके भी तो वेही पुरुष उनकी स्तुति करसक्ते हैं जो उनमुनियों के चरणकमलों को आराधन करनेवाले महात्मा पुरुषहैं ॥ ७१ ॥ इसप्रकार धर्मोपदेशामृताधिकार में मुनिधर्मका वर्णन समाप्त हुवा ॥
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