________________
मायिका हैं, ज्ञानमतिजी स्वयं ग्रायिका हैं, इनकी छोटी बहिन "अभयमति" प्रायिका हैं, भाई रवीन्द्रकुमार शास्त्री ब्रह्मचर्य प्रत लेकर धर्म प्रचार में रत हैं। कु. माधुरी पोर कु. मालती ब्रह्मचर्य व्रत धारण कर श्रुताभ्यास में रत हैं।
ग्रायिका ज्ञानमनिजी ने वि० सं० २००१ में मनायं देना भूषणगी दिपीक्षा और नि . २०१३ में प्राचार्य वीरसागरजी से प्रायिका दीक्षा ली थी। प्राचार्य महावीरकीतिजी के पास न्याय, म्याकरण, साहित्य और सिद्धान्त का गहन अध्ययन किया। प्राचार्य शिवसागरजी के संघ में रहकर तपस्या की साधना की। तपश्चर्या के प्रभाव से प्रापका क्षयोपशम नित्य प्रति वर्धमान है। इनको विद्वत्ता से प्रभावित होकर प्राचार्य श्री देशभूपराजी महाराज ने प्राचार्य श्री धर्मसागरजी और उपाध्याय श्री विद्यानन्दजी के सान्निध्य में विशाल जनसभूधाय के बीच दिल्ली में न्याय प्रभाकर एवं प्रायिका रत्न को उपाधि से विभूषित किया था। भापका अभीक्ष्ण ज्ञानोपयोग रहता है। इसी कारण अब तक अाप १०८ ग्रन्थों को चना कर की हैं। पाप संस्कृत और हिन्दी कविता लिखने में मिद्धहस्न हैं। नियमसार का यह संस्करण :
श्री १०५. ज्ञानमनि मालाजो द्वारा विरचिन हिन्दी टीका के साथ नियमसार का यह सस्करण प्रकाशित हो रहा है।
गाथानों के नोच संस्कृत छाया, नदनन्तर माताजी द्वारा 'वरचित हिन्दी पद्यानुवाद, उसके नोचें पदमप्रभमलधागदेव विरचित मस्तत टोका और उसके नीचे माताजी द्वारा विरचित हिन्दो टीका दी गई है। हिन्दी टोका में गाया का प्रत्यार्य, संस्कृत दोका का प्रयं, भावार्थ और पथावश्यक विशेषार्थ दिया गया है । टिप्पणी में गापात्रों के पाठ भेद संगृहीत हैं। परिशिष्ट में नाथानुक्रमणिका 141 पद्यानुक्रमणिका टीका में उद्धृत गाया तथा श्लोकों को अनुक्रमणिका दी गई है। प्रारम्भ में प्रकाशकीय बाग के बाद विस्तृत प्रस्तावना संलग्न है जिम में मूल प्रत्यकर्ता श्री कुन्दकुन्दाचार्य, संस्कृत टीकाकार श्री पद्मप्रभमलघारी देव और हिन्दी टीकाकी श्री आधिकारल ज्ञानमति माताजी का परिचय दिया गया है। साथ ही नियमसार के. प्रतिपाद्य विषय को अधिकारों के क्रम से दिया गया है । संस्कृत टीका संस्कृप्त छाया में गरम्परा में जो प्रशुद्धियां चली माती थी उनका यथाशक्य संशोधन कर दिगा गया है।
नियममार में कुन्दकुन्द स्वामी ने निश्चय और व्यवहारनय के अनुसार नियम प्रर्याद सम्यग्दर्शन, मम्परज्ञान और सम्यकचारित्र का वर्णन किया है। कुमकुन्द की समस्त रचनायें अनावश्यक विस्तार से रहित सार स्वरूप है। माताजी ने इस ग्रन्थ को हिन्दी टीका लिखकर स्वाध्याय रसिक पुरुषों का महान् उपकार किया है। प्राशा है इसी प्रकार अापके द्वारा जिनवाणी की सेवा होती रहेगी। सागर
विनीत : १५-२-१९८२
पन्नालाल साहित्याचार्य