Book Title: Gommatasara Karma kanda
Author(s): Nemichandra Siddhant Chakravarti, Jawaharlal Shastri
Publisher: Shivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
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गोम्मटसार कर्मकाण्ड-२
भावार्थ -- यहाँ पर ग्रन्थकर्ता श्री नेमिचन्द्राचार्य ने नेमिनाथ भगवान को नमस्कार करके अपने उत्तर भेद सहित ज्ञानावरणादि मूल कर्मप्रकृति का वर्णन करने वाले 'प्रकृति समुत्कीर्तन' ग्रन्थ को कहने की प्रतिज्ञा की है। प्रकृति शब्द का क्या अर्थ है? इसके उत्तरस्वरूप आचार्य गाथासूत्र कहते हैं -
पयडी सील सहावो, जीवंगाणं अणाइसंबंधो ।
कणयोवले मलं वा, ताणस्थित्तं सयं सिद्धं ।।२।। अर्थ - प्रकृति, शील और स्वभाव ये एकाईयांचा । जिस प्रकार स्वर्ग-पाषाण में किट्टकालिमा का अनादि सम्बन्ध है, उसी प्रकार जीव-शरीर (कार्मण) का अनादि काल से सम्बन्ध है। इन दोनों का अस्तित्व स्वयं सिद्ध है।
विशेषार्थ – प्रकृति का अर्थ शील या स्वभाव है, जैसे अग्नि का ऊर्चगमन, वायु का तिर्यगमन और जल का अध:गमन स्वभाव है, उसी प्रकार अन्य कारण-निरपेक्ष जो होता है और जो अपने में होता है वह स्वभाव है। जीव का स्वभाव रागादिरूप परिणमने का और कर्म का स्वभाव तद्रूप परिणमाने का है। इनमें जीव का अस्तित्व अहं प्रत्यय से होता है तथा कर्म का अस्तित्व जीव में ज्ञान की वृद्धि और हानि से सिद्ध होता है क्योंकि आवरण कर्म के बिना तरतमता नहीं हो सकती है।
शंका - यदि कर्मोदय होने पर रागादि होते हैं और रागादि होने पर क्रर्मबन्ध होता है तो इतरेतराश्रय दोष आता है, क्योंकि रागादि बिना कर्मबंध नहीं होता और कर्म का बंध व उदय, बिना रागादिक के नहीं होता।
समाधान - जीव और कर्मों का अनादिकाल से बन्ध चला आ रहा है; दूसरे, पूर्वबद्ध कर्मेदय से रागादि होते हैं और रागादि से अन्य नवीन कर्मबन्ध होता है। यदि वही कर्मबन्ध होता जो रागादि का कारण है तो इतरेतराश्नय दोष संभव होता, किन्तु ऐसा है नहीं।
शंका - जीव अमूर्तिक है और कर्म मूर्तिक हैं। मूर्तिक-अमूर्तिक का बन्ध असंभव है, यदि मूर्तिक-अमूर्तिक का बन्ध होने लगे तो आकाश आदि के भी कर्मबन्ध का प्रसंग प्राप्त होगा।
समाधान - ‘जीव अमूर्तिक ही हैं' ऐसा एकान्त नहीं है, कर्मबन्धरूप पर्याय की अपेक्षा व उससे संयुक्त होने के कारण जीव कथंचित् मूर्तिक है और शुद्ध स्वरूप की अपेक्षा कथंचित् अमूर्तिक है। कहा भी है -- १. सर्वार्थसिद्धि ८.३ । २. सगादिपरिणमनमात्मनः स्वभावः रागाद्युत्पादकत्वं तु कर्मणः । कर्मकाण्ड संस्कृतटीका गाथा २।। ३. जयधवल पु.१ पृ. ५६ ।