Book Title: Bhagwati Sutra Part 02
Author(s): Kanakprabhashreeji, Mahendrakumar Muni, Dhananjaykumar Muni
Publisher: Jain Vishva Bharati
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भगवती सूत्र
श. १३ : उ. ६ : सू. १०७-११० बुलाया, बुलाकर इस प्रकार कहा- देवानुप्रियो ! वीतीभय नगर को आभ्यंतर और बाहर जैसे उववाई (सू. ५५-६९) में कूणिक की वक्तव्यता यावत् पर्युपासना की । पद्मावती - प्रमुख देवियों ने वैसे ही यावत् पर्युपासना की। भगवान ने धर्म कहा ।
१०८. उद्रायण राजा श्रमण भगवान् महावीर के पास धर्म सुनकर, अवधारण कर हृष्ट-तुष्ट हो गया। वह उठने की मुद्रा में उठा, उठकर श्रमण भगवान् महावीर को तीन बार यावत् नमस्कार कर इस प्रकार बोला- भंते ! यह ऐसा ही है। भंते ! यह तथा (संवादिता - पूर्ण) है। भंते ! यह अवितथ है । भंते ! यह असंदिग्ध है। भंते ! यह इष्ट है। भंते ! यह प्रतीप्सित ( प्राप्त करने के लिए इष्ट) है । भंते ! यह इष्ट-प्रतीप्सित है - जैसा आप कह रहे हैं, ऐसा भाव प्रदर्शित कर, इतना विशेष है - देवानुप्रिय ! अभीची कुमार को राज्य में स्थापित करता हूं। मैं देवानुप्रिय के पास मुंड होकर अगार से अनगारिता में प्रव्रजित होता हूं।
देवानुप्रिय ! जैसा सुख हो, प्रतिबंध मत करो ।
१०९. वह उद्रायण राजा श्रमण भगवान् महावीर के इस कथन को सुनकर हृष्ट-तुष्ट हो गया । उसने श्रमण भगवान् महावीर को वंदन - नमस्कार किया, वंदन - नमस्कार कर अभिषिक्त हाथी पर चढा । चढकर श्रमण भगवान् महावीर के पास से मृगवन उद्यान से प्रतिनिष्क्रमण किया, प्रतिनिष्क्रमण कर जहां वीतीभय नगर था वहां जाने का संकल्प किया।
११०. उस उद्रायण राजा के इस प्रकार का आध्यात्मिक, स्मृत्यात्मक, अभिलाषात्मक और मनोगत संकल्प समुत्पन्न हुआ - अभीचीकुमार मेरा एकाकी पुत्र है, इष्ट, कांत, प्रिय, मनोज्ञ, मनोहर, स्थिरतर, विश्वसनीय, सम्मत, बहुमत, अनुमत और आभरण करण्डक के समान है। रत्न, रत्नभूत ( चिन्तामणि आदि रत्न के समान) जीवन उत्सव और हृदय को आनंदित करने वाला है। वह उदुम्बर पुष्प के समान श्रवण- दुर्लभ है फिर दर्शन का तो कहना ही क्या ? यदि मैं अभीचीकुमार को राज्य में स्थापित कर श्रमण भगवान् महावीर के पास मुंड होकर अगार से अनगारिता में प्रव्रजित होता हूं तो अभीचीकुमार राज्य, राष्ट्र, बल, वाहन, कोश, कोष्ठागार, पुर, अंतःपुर, जनपद और मनुष्य-संबंधी काम-भोगों में मूर्च्छित, गृद्ध, ग्रथित और आसक्त होकर आदि-अंतहीन दीर्घ-पथ वाले चतुर्गत्यात्मक संसार में अनुपर्यटन करेगा। मेरे लिए यह श्रेय नहीं है कि मैं अभीचीकुमार को राज्य में स्थापित कर श्रमण भगवान् महावीर के पास मुंड होकर अगार से अनगारिता में प्रव्रजित होऊं, मेरे लिए यह श्रेय है कि मैं अपने भागिनेय केशीकुमार को राज्य में स्थापित कर श्रमण भगवान् महावीर के पास मुंड होकर अगार से अनगारिता में प्रव्रजित होऊं - इस प्रकार संप्रेक्षा की, संप्रेक्षा कर जहां वीतीभय नगर था, वहां आया, आकर वीतीभय नगर के बीचोंबीच जहां अपना घर है, जहां बाहरी उपस्थान- शाला है, वहां आया, आकर अभिषिक्त हस्ती को स्थापित किया, स्थापित कर अभिषिक्त हाथी से उतरा, उतरकर जहां सिंहासन था, वहां आया, आकर प्रवर सिंहासन पर पूर्वाभिमुख होकर बैठा, बैठकर कौटुम्बिक पुरुषों को बुलाया, बुलाकर इस प्रकार कहा— देवानुप्रियो ! शीघ्र ही वीतीभय नगर के भीतर और बाहर पानी का छिड़काव करो, झाड़-बुहार जमीन की सफाई करो, गोबर की लिपाई करो यावत् प्रवर सुरभि वाले गंध चूर्णों से सुगंधित-गंधवर्ती तुल्य करो, कराओ, ऐसा कर और करवाकर इस आज्ञा को मुझे प्रत्यर्पित
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