Book Title: Bhagwati Sutra Part 02
Author(s): Kanakprabhashreeji, Mahendrakumar Muni, Dhananjaykumar Muni
Publisher: Jain Vishva Bharati
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श. ३४ : उ. १ : सू. ३२,३३
भगवती सूत्र (अन्तराल-गति) नहीं होती, शेष उसी प्रकार वक्तव्य है। (जैसा पश्चिम के चरमान्त में मर कर पश्चिम के चरमान्त में उत्पन्न होने वाले जीवों के विषय में बतलाया गया है।) (पश्चिम के चरमान्त में मरकर) पूर्व के चरमान्त में उत्पन्न होने वाले जीवों के विषय में वैसे ही बतलाना चाहिए जैसा स्वस्थान में (एक, दो, तीन, चार समय वाली विग्रह-गति (अन्तराल-गति) बतलानी चाहिए)। (यहां पश्चिम के चरमान्त में मर कर पूर्व के चरमान्त में समश्रेणी से उत्पन्न हो सकते हैं इसलिए एक समय वाली विग्रह-गति (अन्तराल-गति) बतलानी चाहिए)। (पश्चिम के चरमान्त में मरकर) दक्षिण के चरमान्त में उत्पन्न होने वाले जीव के (पश्चिम का चरमान्त दक्षिण के चरमान्त के साथ समश्रेणी में नहीं हैं इसलिए) एक समय वाली विग्रह-गति (अन्तराल-गति) नहीं होती, शेष इसी प्रकार समझना चाहिए। (अर्थात् स्वस्थान में दो, तीन और चार समय वाली विग्रह-गति (अन्तराल-गति) बतलानी चाहिए। (उत्तर के चरमान्त में मरकर चारों दिशाओं में उत्पन्न होने वाले जीवों के विषय में बताया जा रहा है-) उत्तर के चरमान्त में (मारणान्तिक-समुद्घात से समवहत होते हैं,) समवहत होकर उत्तर में ही उत्पन्न होने वाले जीवों के विषय में वैसा ही बतलाना चाहिए जैसा स्वस्थान के विषय में बतलाया गया है। (एक, दो, तीन और चार समय वाली विग्रह-गति (अन्तराल-गति) बतलानी चाहिए)। (स्वस्थान में उत्पन्न होते हैं, इसलिए एक समय वाली विग्रह-गति भी हो सकती है) उत्तर के चरमान्त में (मारणान्तिक-समुद्घात से समवहत होते हैं,) समवहत होकर पूर्व के चरमान्त में उत्पन्न होने वाले जीवों के विषय में वैसे ही बतलाना चाहिए, (जैसा उत्तर के चरमान्त में मरकर उत्तर के चरमान्त में उत्पन्न हो वाले जीवों के विषय में स्वस्थान में बतलाया गया है), केवल इतना अन्तर है-एक समय वाली विग्रह-गति नहीं होती। उत्तर के चरमान्त में (मारणान्तिक-समुद्घात से समवहत होते हैं,) समवहत होकर दक्षिण के चरमान्त में उत्पन्न हो वाले जीवों के विषय में वैसे ही बतलाना चाहिए जैसे स्वस्थान में एक, दो, तीन और चार समय वाली विग्रह-गति (अन्तराल-गति) बतलाई गई थी। (यहां उत्तर के चरमान्त और दक्षिण के चरमान्त में श्रमश्रेणी है, इसलिए एक समय वाली विग्रह-गति (अन्तराल-गति भी होती है)। उत्तर के चरमान्त में (मारणान्तिक-समुद्घात से समवहत होते हैं,) समवहत होकर पश्चिम के चरमान्त में उत्पन्न होने वाले जीवों की एक समय वाली विग्रह-गति (अन्तराल-गति) नहीं होती (क्योंकि उत्तर का चरमान्त और पश्चिम का चरमान्त समश्रेणी में नहीं हैं), शेष उसी प्रकार बतलाना चाहिए जैसे (उत्तर के चरमान्त में मरकर पूर्व के चरमान्त में उत्पन्न होने वाले जीवों के विषय में बतलाया गया था) यावत् 'सूक्ष्म-वनस्पतिकायिक-पर्याप्तक-जीव की उत्पत्ति सूक्ष्म-वनस्पतिकायिक-पर्याप्तक-जीवों में' तक (पूर्व की तरह जाननी चाहिए)। ३३. भन्ते! बादर-पृथ्वीकायिक-पर्याप्तक-जीवों के स्थान कहां प्रज्ञप्त हैं? गौतम! अपने स्थान की अपेक्षा से आठ पृथ्वियों में (बादर-पृथ्वीकायिक-पर्याप्तक-जीवों के स्थान प्रज्ञप्त हैं,) जैसा (पण्णवणा के दूसरे स्थान-पद (सू. १-१५) में बतलाया गया है
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