Book Title: Bhagwati Sutra Part 02
Author(s): Kanakprabhashreeji, Mahendrakumar Muni, Dhananjaykumar Muni
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 545
________________ पृष्ठ | सूत्र पंक्ति अशुद्ध ५२९| स्तनितकुमार की वक्तव्यता। स्तनितकुमारों की वक्तव्यता। ५२९ | एकेन्द्रिय नैरयिक एकेन्द्रिय नैरयिकों ५२९ जैसे-असुरकुमार वैसे द्वीन्द्रिय की जैसे असुरकुमार वैसे द्वीन्द्रिय पृथ्वीकायिक छह पृथ्वीकायिक-जीव छह २ पुरुषकार, पराक्रम पुरुषकार-पराक्रम वनस्पतिकायिक वनस्पतिकायिक-जीवों द्वीन्द्रिय सात द्वीन्द्रिय-जीव सात एकेन्द्रिय एकेन्द्रियों त्रीन्द्रियों रहते थे। पृष्ठ सूत्र पंक्ति अशुद्ध ५०६ ८४,८५ १ एक पृथ्वीकायिक जीव -जीव सर्वत्र जीव कितने पृथ्वीकायिक-जीव ६ पृथ्वीकायिक जीवों पृथ्वीकायिक-जीवों | वक्तव्यता, वक्तव्यता वनस्पतिकायिक जीव वनस्पतिकायिक-जीव ५ | जा रहा है यावत् जा रहा है यावत् र्षिक लोक-पद | सर्वलघु प्रज्ञप्त है? सर्व लघु (संक्षिप्त) प्रज्ञप्त है? | विशेषाधिक है? विशेषाधिक हैं? ३ असंख्येय गुण अधिक है। असंख्येय-गुणा है। १ राजगृह नगर यावत् गौतम स्वामी राजगृह (नगर) (भ. १/४-१०) यावत् (गौतम स्वामी) ३ असुरकुमारों असुरकुमार ९६ | १० वहां सभा नहीं है यावत् वहां सभा नहीं है (भ. २/१२१) यावत् | मनुष्य लोक मनुष्य-लोक औपकारिक लयन, औपकारिक लयन (पीठिका), | प्रपात लयन, प्रपात लयन हैं, मोहित करते हैं। मोहित करते हैं, जनपद विहार करने लगे जनपद-विहार करते हैं। रह रहे थे | सुकुमाल हाथ-पैर वाली सुकुमार-हाथ-पैर वाली वर्णक । यावत् विहरण करने लगे। वर्णक यावत् रहते हैं। सुकुमाल हाथ-पैर वाला सुकुमार-हाथ-पैर वाला सुकुमाल हाथ-पैर सुकुमार-हाथ-पैर | सिन्धु सौवीर सिन्धु-सौवीर समर्थ और सामर्थ्य-युक्त जानने वाला यावत् (भ. ३/९४) | जानने वाला (भ. ३/९४) यावत् रह रहा था रहता था। यावत् (भ. १२/६) (भ. १२/६) यावत् विहरण करने लगे। रहते हैं। इस प्रकार कहा- देवानुप्रियो! इस प्रकार कहा-देवानुप्रियो! की वक्तव्यता वैसे ही की (वक्तव्यता) (भ. ११/६१) वैसे ही इष्ट जनों इष्ट-जनों समर्थ और सामर्थ्य-युक्त वक्तव्यता, (वक्तव्यता) (भ. ९/१८०,१८१). वक्तव्य है यावत् (वक्तव्य है)अभिनिष्क्रमण अभिषेक निष्क्रमण-अभिषेक वक्तव्यता, (वक्तव्यता) (भ.९/१८४-१८९), २ वक्तव्यता (वक्तव्यता) (भ. ९/१९०-१९२)/ ११७| १२ | उत्तर पूर्व दिशा उत्तर-पूर्व-दिशा १९८३ बार बार बार-बार पृष्ठ | सूत्र पंक्ति अशुद्ध ११८ ५ केशीराजा केशी राजा | वक्तव्यता (वक्तव्यता) (भ. ९/१५०-१५१) ६ अंतःपुर परिवार अंतःपुर-परिवार ७ | विचरण और विचरण करते हुए और १० जानने वाला यावत् जानने वाला (भ. २/९४) यावत् | करते हुए विहार करने लगा। करता हुआ रहता है। | महाविदेह वास महाविदेह क्षेत्र | १० मन नही होता मन नहीं होता ५१६ | १३३ ३ क्योंकि नैरयिक क्योंकि नैरयिकों के १३५ ३ गौतम ! जो नैरयिक गौतम! क्योंकि नैरयिकों के | १४९ शीर्षक भावितात्म-विकिया-पद भावितात्म-विक्रिया-पद १४९| १ |राजगृह नगर यावत् गौतम ने इस राजगृह (नगर) (भ. १/४-१०) | प्रकार कहा यावत् (गौतम ने) इस प्रकार कहा५१९| १६२ १ (डुबकी लगा कर) उन्मज्जन (डुबकी लगा कर), उन्मज्जन शतक १४ सं.गा. ३ | केवली। केवली॥१॥ १ | १ | राजगृह नगर यावत् गौतम ने राजगृह (नगर) (भ. १/४-१०) यावत् (गौतम ने) ५२१२ ०-१६ विहरण करता है रहता है ८ | १ |-अनुपनक -अनुपपन्नक-नैरयिक १२ | १ | बंध करते हैं? पृच्छा। बंध करते हैं पृच्छा। २०६ वाणमंतर, ज्योतिष्क, वैमानिक वानमंतरों, ज्योतिष्कों, वैमानिकों ४ वाणमंतर, ज्योतिष्क, वैमानिक वानमंतरों, ज्योतिष्कों, वैमानिकों असुरकुमार देव असुरकुमार-देव |-उपपत्रक । जो |-उपपन्न । उनमें जो सत्कार सम्मान सत्कार-सम्मान जाते हैं। जो जाते हैं। उनमें जो स्तनितकुमार स्तनितकुमारों वाणमंतर, ज्योतिष्क, वैमानिक वानमंतरों, ज्योतिष्कों, वैमानिकों २ समर्थ है । प्रहार समर्थ है, प्रहार ३ जाता है। पहले जाता है, पहले ५ | दसवें शतक (भ.१०/२४-३०) में दसर्वे शतक में आत्म-ऋद्धि-उद्देशक आत्म-ऋद्धि उद्देशक, वैसे चारों में जैसे (उक्त है) वैसे ही चारों ६ वक्तव्य हैं, यावत् वक्तव्य हैं (भ. १०/२८-३८) यावत् वैमानिक-देवी का वैमानिक-देवी (के बीचोंबीच | ७ समर्थ है। समर्थ है, शस्त्र से बिना प्रहार कर जाने में भी समर्थ है।) ६ हां गौतम! हां, गौतम! ५४ शीर्षक अग्नि का अतिक्रमण-पद अग्निकाय का अतिक्रमण-पद ५२९| ५७/५७ जो उनमें जो ५७/५ वक्तव्य हैं, यावत् | (वक्तव्य हैं) यावत् ६५.६६ १ जीव -जीव द्वीन्द्रियों ६४,६६२ है २ त्रीन्द्रिय १ पंचेन्द्रिय-तिर्यक्योनिक जीव पंचेन्द्रिय-तिर्यग्योनिक-जीव ६७ असुरकुमार असुरकुमारों ५३१६८,६१ २ | तिर्यक् पर्वत अथवा तिर्यक् भित्ति तिर्यक्-पर्वत अथवा तिर्यक्-भित्ति ७१ | १ | राजगृह नगर यावत् गौतम ने राजगृह (नगर) (भ. १/४-१०) यावत् (गौतम ने) ४ करते हैं। शरीर-पोषक करते हैं, शरीर-पोषक ५ होता है। योनि पौद्गलिक है। स्थिति होता है, उनकी योनि पौद्गलिक है, उनकी स्थिति का | नैरयिक जीव नैरयिक-जीव अवीचि द्रव्यों अवीचि-द्रव्यों -द्रव्यों चाहते हैं, वह यह कैसे करते हैं? |चाहता है, तब वह यह कैसे करता है। | तब वे | तब वह |चक्र-नाभि के प्रतिरूप का निर्माण नेमि (चक्र के घेरे) के प्रतिरूप की करते विकुर्वणा करते | उस चक्र नाभि प्रतिरूप | उस नेमि-प्रतिरूप बहुसम रमणीय भूमि भाग बहुसम-रमणीय भूमि-भाग ६ यावत् मणि | (रायपसेणिय सूत्र २४-३१) यावत् मणियों चक्र प्रतिरूप के बहुमध्य- नेमि-प्रतिरूप का बहुमध्य| प्रासादावतंसक का निर्माण करता प्रासादावतंसक की विकुर्वणा करता द्रव्यों ५३२ हैं यावत् ५३२| मणि का स्पर्श । मणिपीठिका वैमानिक की भांति का निर्माण करता है, | वर्णन यावत् हैं (रायपसेणिय सूत्र ३४) यावत् | मणियों का स्पर्श । उसकी मणिपीठिक वैमानिकों की मणिपीठिका की भांति की विकुर्वणा करता है, वर्णन (रायपसेणियं, सूत्र २४५) यावत् आहत-नाट्यों रहता है। ५३२ ५३२ | १४ आहत नाट्यो ७४ | १६ | विहरण करता है।।

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