Book Title: Bhagwati Sutra Part 02
Author(s): Kanakprabhashreeji, Mahendrakumar Muni, Dhananjaykumar Muni
Publisher: Jain Vishva Bharati
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१.
अशुद्ध
शुद्ध
वैमानिकों की वक्तव्यता सिद्धों की वैमानिक वक्तव्य हैं। सिद्ध जीवों की जीवों की भांति
भांति
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असंज्ञी की आहारक २६ २,३ नोसंज्ञी -नोअसंज्ञी - जीव-पद में,
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एकत्व
-जीव, सिद्ध
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की आहारक
भवसिद्धिक जीव पद चरम हैं, अचरम नहीं हैं।
आहारक की भांति ।
-जीवों, सिद्धों के एकवचनबहुवचन की
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संज्ञी की आहारक की भांति
२८ शीर्षक x
१
२९ शीर्षक
२९ १
सिद्ध-पद में अचरम हैं, मनुष्य-पद में एकवचन बहुवचन में चरम हैं।
वाले की
वाला (एकवचन बहुवचन में)
२ अलेश्य की नोसंज्ञी-नोअसंज्ञी की अलेश्य (एकवचन बहुवचन में)
नोसंज्ञि नोअसंज्ञी (भ. १८ / २६) की (दृष्टि-द्वार) (एकवचन बहुवचन में) अनाहारक (भ. १८/२४) की भांति | मिध्यादृष्टि (एकवचन बहुवचन में) आहारक (भ. १८/२४) की (एकवचन में) स्यात् चरम है, स्यात् अचरम है।
मिथ्यादृष्टि की आहारक की
२. ३ स्यात् चरम हैं, स्यात् अचरम हैं।
की अनाहारक की भांति
संयत-जीव पद एवं मनुष्य-पद की आहारक की भांति वक्तव्यता । असंयत की भी
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संयतासंयत की २९ ३-४ नोसंयत, नोअसंयत, नोसंयतासंयत की नोभवसिद्धिक-नोअभवसिद्धिक की भांति
(आहारक द्वार) एकवचन
जीव (पद) और सिद्ध (पद) में आहारक (भवसिद्धिक-द्वार) भवसिद्धिक जीव-पद चरम है, अचरम नहीं है। आहारक (भ. १८/२४) की भांति
-जीव और सिद्ध एकवचन बहुवचन में
३० शीर्षक x
(संज्ञि द्वार)
संज्ञी (एकवचन बहुवचन में) आहारक (भ.१८/२४) की भांति असंज्ञी आहारक नोसंज्ञि नोअसंज्ञी जीव-पद में और सिद्ध-पद में अचरम है, मनुष्यपद में एकवचन बहुवचन में चरम है। (लेश्या-द्वार)
(संयत-द्वार) संयत जीव (एकवचन बहुवचन में) एवं मनुष्य (एकवचन बहुवचन में) आहारक (भ. १८/२४) की भांति (वक्तव्य है)। असंयत (एकवचनबहुवचन में) भी
संयतासंयत (एकवचन बहुवचन में) नोसंयत-नोअसंयत-नोसंयतासंयत (एकवचन बहुवचन में) नोभवसिद्धिक-नोअभवसिद्धिक (भ. १८/ २५) की भांति (कषाय-द्वार)
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ज्ञानी की
२,३ ज्ञानी की
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आहारक की भांति
२ अकषायी जीव पद, सिद्ध में
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१ -वेदक की
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३
अशुद्ध सकषायी यावत् लोभ कषायी की
२
४
४
ज्ञानी
- ज्ञानी
केवलज्ञानी
(योग-द्वार)
की भांति वक्तव्यता ।
सयोगी यावत् काययोगी की आहारक सयोगी (एकवचन बहुवचन में) यावत् काययोगी (एकवचन बहुवचन में) आहारक (भ. १८/२४) की भांति (वक्तव्य हैं),
अयोगी (एकवचन बहुवचन में)
नोसंज्ञि
केवलज्ञानी की
अयोगी की नोसंज्ञी
-अनाकोरापयुक्त की
अवेदक की
-शरीरी की
अशरीरी की
अपर्याप्त की
लक्षण गाथा है
ऐसा ही होता है।
थे यावत्
शतक (भ. ३/२८-३०) में
दृष्टांत, पूर्वभव पृच्छा
शुद्ध सकषायी (एकवचन बहुवचन में) यावत् लोभ कषायी (एकवचनबहुवचन में)
आहारक (भ. १८/२४) की भांति अकषायी (एकवचन बहुवचन में) जीव पद और सिद्ध (पद) में
पृच्छा यावत्
किया है।
था वर्णक ।
वर्णक |
रहता था आढ्य यावत्
७
अपरिभूत मेढ़ी-प्रमाण, चक्षुभूत
८
९, १० समर्थ, सेनापतिपत्व करता था
११
वाला यावत्
है। (अकषायी) (एकवचन बहुवचन में)
हुए यावत्
उद्देशक (भ. १६/३३, ३ / २७) की उद्देशक की
-अनाकारोपयुक्त
-वेदक
अवेदक
-शरीरी
अशरीरी
अपर्याप्त
लक्षण-गाथा (है)
ऐसा ही है।
हुए (ओवाइयं, सू. २२-२५ )
थे (भ. १६/३३, ३ / २७) यावत् शतक में
दृष्टांत, उसी प्रकार पूर्व भव पृच्छा पृच्छा (भ. ३/२८-३०) यावत् किया है ?
था वर्णक ( ओवाइयं, सू. १) उद्यान - वर्णक (भ. ११/५७ ) 1
रहता था जो आढ्य (भ. २/९४)
यावत्
अपरिभूत था ।
मेढी, प्रमाण,
चक्षुर्भूत
सामर्थ्य युक्त सेनापतित्व करता हुआ
वाला (भ. २/९४) यावत्
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६
८
ऋद्धि यावत्
पूछा-पूछ कर
१-२ गगदत्त (भ. १६/७१) की भांति
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७
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१
१
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अशुद्ध
शतक (भ. १६ / ६७,६८) की वक्तव्यता । यावत् समवसृत हुए सुदर्शन (भ. ११ / ११६)
किया यावत्
धर्म कहा यावत्
३
श्रेष्ठी ने यावत्
उद्विग्न यावत्
होओगे। देवानुप्रिय !
तुम्हारे सामर्थ्य कैसी है?
हम भी संसारभय से
उद्विग्न, जन्म
भीत, देवानुप्रिय
संसारभय
२ चलता है यावत्
६०, ११ सर्वत्र
हू यावत्
किया, यावत्
चाहिए यावत्
हैं यावत्
सौधर्म कल्प
अंगुल के असंख्यातवें भाग का वर्णक
वर्णक यावत् पृथ्वीकायिक कापोत लेश्या वाले पृथ्वीकायिक से
सिद्ध यावत् पृथ्वीकायिक यावत्
अप्कायिक जीव
अप्कायिक
५८ १ ५८ १
५९ १-२ वनस्पतिकायिक ६०, ६ सर्वत्र पृथ्वीकायिक
६०, ६२ सर्वत्र अप्कायिक
वनस्पतिकायिक
६३४ ६२ ३,४ करता है। आर्यो कापोत लेश्या
वाला वनस्पतिकायिक यावत्
शुद्ध
शतक की भांति (वक्तव्यता) यावत्
समवसृत हुए (भ. १६ / ६७, ६८ ) सुदर्शन की
किया (भ. ११/११६) यावत् धर्म का निरूपण किया (ओवाइयं,
सू. ७१-७९) यावत्
श्रेष्ठी ने (भ. १६ / ७१) यावत्
वक्तव्यता यावत्
आदीप्त हो रहा है, जल रहा है।
प्रदीप्त हो रहा है। प्रज्वलित हो रहा है प्रदीप्त हो रहा है (प्रज्वलित हो रहा है)।
रहा है यावत्
उद्विग्न (भ. २८/४६) यावत् होआगे, देवानुप्रिय !
तुम्हारा सामर्थ्य कैसा है ?
संसार भय से
उद्विग्न और जन्म भीत हम भी देवानुप्रिय
ससार भय
ऋद्धि (भ. ९/१८२) यावत्
पूछा, पूछ कर
गंगदत्त की भांति वक्तव्यता (भ.
१६ / ७१) यावत्
आदीप्त हो रहा है (जल रहा है)।
रहा है (भ. ९/२१४) यावत् हूँ (भ. २/५२) यावत्
किया (भ. २/५३) यावत् चाहिए (भ. २/५३) यावत्
हैं (भ. २/५५) यावत्
चलता है यावत् (भ. २/५५) यावत सौधर्म कल्प
अंगुल के असंख्यातवें भाग था-नगर का वर्णन । -वर्णक (भ. १/२-५) यावत् पृथ्वीकायिक जीव कापोत- लेश्या वाले पृथ्वीकायिक जीवों से सिद्ध होता है (भ. १/४४) यावत्
पृथ्वीकायिक जीव यावत्
अप्कायिक जीव
अप्कायिक-जीवों
वनस्पतिकायिक-जीवों
पृथ्वीकायिक जीव
अप्कायिक जीव वनस्पतिकायिक- जीव करता है। आर्यो! कापोत-लेश्या वाला अप्कायिक जीव यावत् सब दुःखों का अन्त करता है। आयों! कापोत-लेश्या वाला वनस्पतिकायिक जीव यावत्