Book Title: Bhagwati Sutra Part 02
Author(s): Kanakprabhashreeji, Mahendrakumar Muni, Dhananjaykumar Muni
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 548
________________ पृष्ठ सूत्र पंक्ति ६१० १२१ ५ ६१० १२१ ६ ६११ १२१ १० ११ १२ " ************************* 〃 ६१३ सं.गा. ६१३ " " ६१३ ६१४ ६१४ " ६१४ ६१४ ६१४ ६१४ ६१५ ६१५ " " ६१६ ६१६ " ६१७ ३ २४ ५. " ४ ५. ६ ६ २ "" ८ vvvaze ४ ७ ७ ५... ७ ८ १ ८ ८ ९ १० १० १० १२ १४ १५. १५ १७ २१ ३ सत्तरह " २४ २ ३ ३. ३. ६ ७ १ हुआ यावत् ५ पांच क्रिया १, ३ ७ ९ २ ५ ३. १ ३ * ३ |तिगिच्छ कूट है। इतना आत्मरक्षक देव पूर्ववत् यावत् १२१) वैरोचनेन्द्र ८ २ अशुद्ध शतक १७ प्राण का वियोजन वे जीव उद्देशक हैं। राजगृह नगर यावत् गौतम ने इस प्रकार महाविदेह वास | इसी प्रकार........ चढ़ता है। गिराता है चढ़ता है, गिराता है, कायिकी यावत् कायिकी (भ. १६ / ११७) यावत् प्राण यावत् सत्त्वों का प्राण वियोजन प्राण (भ. ५/१३४) यावत् प्राणवियोजन प्राण- वियोजन वे जीव भी प्राण का वियोजन वे जीव होते हैं। जो गिराता है प्राण का वियोजन होते हैं। जो इसी प्रकार शुद्ध हुआ (भ. ७/६४) यावत् पांच क्रियाओं गुरुता से यावत् प्राण का वियोजन गुरुता से (भ. ५ / १३५) यावत् प्राण वियोजन प्राण- वियोजन तिगिञ्छिकूट है, इतना आत्मरक्षक- देव पूर्ववत् - १२१) यावत् वैरोचनेन्द्र औदारिक यावत् श्रोत्रेन्द्रिय यावत् पृथ्वीकायिक की औदारिक शरीर ३ ३ २५ २,३ एकान्त बाल सत्रह उद्देशक हैं ॥ १ ॥ राजगृह (भ. १/४-१०) यावत् (गौतम ने) इस प्रकार महाविदेह क्षेत्र यह पैरा पिछले पैरे के साथ है। होते हैं। उसके जो यह पैरा पिछले पैरे के साथ है। औदारिक (भ. १०/८) यावत् श्रोत्रेन्द्रिय (भ. २/७७) यावत् पृथ्वीकायिक भी औदारिक शरीर पृथ्वीकायिक जीवों की वक्तव्यता पृथ्वीकायिक- जीव भी वैक्रिय शरीर वैक्रिय शरीर अणुओगद्दाराई में छह नाम अणुओगदाराई (सू. २७३ - २९७) अणुओगद्दाराई, २७३-२९७) में छह नाम हैं. हे यावत् तिर्यग्योनिक मनुष्यों जीवों है यावत् तिर्यक्योनिक मनुष्यों की जीवों ज्योतिष्क, वैमानिक नैरयिक ज्योतिष्क और वैमानिक नैरयिकों एकान्त बाल वे जीव भी होते हैं। उसके जो गिराता है, प्राण- वियोजन पृष्ठ सूत्र पंक्ति ६१७ २६ २५ एकान्त बाल ६१७ २९ १ २९ २. २ २ ४ " " ६१७ " " 〃 n ३० ३० ३० " ६१८ ३१ १ ३२ १ ३३ ३३ ६ " ३, ४ अभिसमन्वागत करता हूँ। जो जीव इस शरीर से ६१८ ३३ ७ सुरभि गन्धत्व ६१८ ३३ ७,८ दुरभि गन्धत्व ३५ ४ " ६१८ ६१९ ". ". "1 ६२० " " "1 " २९ ६२२ " ६२२ " ४० ४२ ६२० ४७ ६ -चलना है। ६२० ४७ १० रूप परिणत ६२० ४७ ५, १२, हे यावत् २ ३ ८ १६ ६२१ ४७ १७, १८ योग- चलना की, ६२१ ४८ ८ आयुष्मन् श्रमण ! १ राजगृह नगर यावत् गौतम ने इस ५० प्रकार होती। यावत् आत्म-कृत होती है। पर-कृत नहीं होती। अदत्तादान, मैथुन परिग्रह की वक्तव्यता यावत् वक्तव्य है, यावत् ५६ ५७ ५१ २ ५३ २ पंचेन्द्रिय तिर्यग्योनिकों पंचेन्द्रिय तिर्यक्योनिक अशुद्ध बाल- पंडित भी हैं, मनुष्यों की नैरयिक ९ १० १५ हे यावत् -एजना ४ (तीन बार) २ ३ २ यावत् क्रोध-विवेक यावत् ५९ २ ६० १ ६० तिर्यक्, मनुष्य कैसे हैं ? महर्द्धिक यावत् करता हूं, करता हूँ । ३५ ७,८ सुरभि गन्धत्व यावत् दुरभि-गंधत्व सुरभिगंधत्व, दुरभिगन्धत्व नहीं है। केवल नहीं है, प्रज्ञप्त हैं ? प्रज्ञप्त है ? ३७ ३ ३९ १ ४० ५ है यावत् तिर्यग्योनिक द्रव्यों कहा जा रहा है प्रकार दंडक आत्म-कृत है, आत्म-कृत है। १२ एकान्त बाल पंचेन्द्रिय तिर्यग्योनिकों पंचेन्द्रिय तिर्यग्योनिक बाल- पंडित भी हैं। मनुष्य नैरयिकों (भ. १/३८४) यावत् क्रोध विवेक (भ. १/३८५) यावत् शुद्ध तिर्यक्त्व, मनुष्यत्व कैसे है ? महर्द्धिक (म. १ / ३३९) यावत् अभिसमन्वागत करता हूँ, जो जीव उस शरीर से सुरभिगन्धत्व दुरभिगन्धत्व है यावत् तिर्यग्योनिक द्रव्यों (कहा जा रहा है) है यावत् -एजना भी, -चलना है? रूप में परिणत है यावत् योग- चलना भी आयुष्मन् श्रमण ! राजगृह नगर (भ. १/४-१०) यावत् (गौतम ने) इस प्रकार होती (भ. १/२५९-२६६) यावत् आत्म-कृत होती है, पर-कृत नहीं होती, अदत्तादान की भी मैथुन की भी, परिग्रह की भी (वक्तव्यता) । वैसे ही (भ. १७/५१-५४) यावत् वक्तव्य हे यावत् प्रकार वैसा ही दंडक आत्म-कृत है ? आत्म-कृत है, पृष्ठ सूत्र पंक्ति ६२२ ६२३ ६२३ | ६२३ " " " " " 23 ७६ ६२४ ७६ " ६० ६१ ६५ ६५ ६५ ६८ ७६ ६२४ ७८ 37 ६२४ ७६ १ ६२४ ७६ २ ६२४७६ ६२४७६ २३ ३, ४ ४. " "} " " : ६२४ ७८ ६२५ ७८ ६२५ ७८ ६२५७८ ६२५ ८० ६२५ ८० ७८ ::: ४ ८० 10 avto us 9 m w ८२ १. ४ ६ ७ २ ६ १ ४. ५ ގ 4. १. my x ४ ४ १ २ ३ ८० ४, ५ ގ ގ ތ ގ ३ २ होने वाला है। भंते! क्या करता है। पृथ्वीकायिक.......... ६ ६. अशुद्ध २ वैमानिक की वैमानिकों की वह यहां ईशान के विषय में भी निरवशेष आत्म-कृत दुःख का वेदन करते हैं, आत्म-कृत दुःख का वेदन करते हैं ? ईशानावतंसक महाविमान ईशानावतंसक महाविमान वह ईशान की निरवशेष पूर्ववत् यावत् पृथ्वीकायिक जीवों है यावत् भंते! सौधर्म कल्प में अप्कायिक होता है। अप्कायिक के भंते! क्या करता है ? पूर्ववत् !........ सौधर्म अप्कायिक की भांति ईषत् प्राग्भारा के अप्कायिक उपपात वक्तव्य है। भंते! इस रत्नप्रभा पृथ्वी पर वायुकायिक जीव पृथ्वीकायिक की भांति वायुकायिक की वक्तव्यता। इतना वायुकायिक जीवों यावत् वैक्रिय समुद्घात, उपपात वक्तव्य है। सौधर्म कल्प पर वायुकायिक वायुकायिक के भंते! करता है। पूर्ववत् । ...... वायुकायिक का सातों पृथ्वियों में उपपात वक्तव्य है। वायुकायिक का उपपात वक्तव्य है। शुद्ध इस प्रकार....... पूर्ववत् (भ. १०/१००) यावत् पृथ्वीकायिक- जीवों है यावत् भंते! अप्कायिक जीव सौधर्म कल्प पर समवहत होता है, अप्कायिक जीव के भंते ० ? (क्या करता है ?) शेष पूर्ववत्.... यह पैरा पिछले पैरे के साथ है। सौधर्म अप्कायिक जीव की भांति ईषत् प्राग्भारा अप्कायिक जीव वक्तव्य है। उपपात करवाना चाहिए- उपपात वक्तव्य है। वायुकायिक जीव इस रत्नप्रभा पृथ्वी होने वाला है, भंते ० ? (क्या) करता है ?) यह पैरा पिछले पैरे के साथ है। पृथ्वीकायिक जीव की भांति वायुकायिक जीव की वक्तव्यता, इतना वायुकायिक जीव (भ. २/७४) यावत् वैक्रिय समुद्घात । उपपात करवाना चाहिए - उपपात वक्तव्य है। वायुकायिक जीव सौधर्म-कल्प पर वायुकायिक जीव के भंते ० ? करता है? शेष पूर्ववत् । ) वायुकायिक जीव का सातों ही पृथ्वियों में उपपात वक्तव्य है, - वायुकायिक- जीव का उपपात करवाना चाहिए - उपपात वक्तव्य है। यह पैरा पिछले पैरे के साथ है।

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