Book Title: Bhagwati Sutra Part 02
Author(s): Kanakprabhashreeji, Mahendrakumar Muni, Dhananjaykumar Muni
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 551
________________ पृष्ठ सूत्र पंक्ति ६३५ ६२ ६३५ " ६३५ " ६३५. " " " " " " ६३६ " ६३६ ६३६ | ६८ 31 ६३६ ६८ ६८ ६९ " " " " " शुद्ध पृथ्वीकायिक-जीवों आर्यो ! नील अप्कायिक जीव भी कहकर अनगार हैं, आयुष्मन् ६६ शीर्षक निर्जरा पुद्गल जानना आदि निर्जरा पुद्गलों को जानने आदि " ६३७ * * * * * ७० " ६३६. ७० " ६३ ६३ ६५ ६ ६८ ६८ ६८ ६६ २. ६७ ६९ ६९ ७० " 4 m wit " ७१ ७१ ७ ". "" "" ६३६ ७१ ६३६ | ७१ २ ६३६ ७१ २ ७४ ७५ ७८ ७८ ८ आर्यो ! तीन ९,१० अप्कायिक की १ कह कर ३ १ २ ३ ३ * ४ २ २ २ મ २ जानता देखता है? ६ जानता देखता। आयुष्मन् ७ प्रज्ञप्त हैं। सर्व लोक ६ " पृथ्वीकायिक " १ अणगार अशुद्ध है, आयुष्मन् पद जानता देखता ७१ ३,४ मायी ३,५ अमायी ३ जा ६ ६ 19 ८ १० २ १ १ २ क्या नैरयिक को जानते देखते नहीं जानते, नहीं देखते हैं, नहीं जानते, नहीं देखते, नहीं उनका आहरण करते है। नहीं जानते, नहीं देखते, माकंदिक पुत्र माकंदिक-पुत्र नहीं जानते, नहीं देखते हैं, नहीं जानते, नहीं देखते, नहीं करते करते हैं तिर्यग्योनिकों तिर्यग्योनिक को जानते देखते हैं, उनका आहरण को क्या जानते देखते हैं? उनका करते हैं। आहरण करते हैं? नहीं जानते नहीं देखते, उनका आहरण नहीं करते हैं? नहीं जानते नहीं देखते, उनमें जो संज्ञीभूत हैं। उनमें जो उपयुक्त हैं। जो संज्ञीभूत हैं जो उपयुक्त हैं ज्योतिष्क की वैमानिक को जानते देखते हैं, वैमानिक की वैमानिक के का पद जानता देखता जानता देखता ? जानता देखता, आयुष्मन् प्रज्ञप्त हैं, सर्व लोक नैरयिक प्रज्ञप्त है कितना प्रज्ञप्त हैं ? प्रज्ञप्त है। को क्या जानते देखते नहीं जानते नहीं देखते, ज्योतिष्क नैरयिकों को क्या जानते देखते हैं ? वैमानिक वैमानिकों के मायिअमायि उनमें जो उपपत्रक उनमें जो -उपपन्नक। जो करते। जो करते। उनमें जो पर्याप्त, अपर्याप्तक जो पर्याप्तक, अपर्याप्तक। उनमें जो देखते, उनका आहरण करते हैं। जो देखते, आहरण करते हैं। उनमें जो करते हैं। जो करते हैं। उनमें जो.. प्रज्ञप्त है, कितने प्रज्ञप्त है ? प्रज्ञप्त है, पृष्ठ ६३८ " " 37 ६३८ " ६३९ ६३९ "3 " "" " " ६३९ 33 ६३९ ६३९ ६४० "1 " ६४० ६४० " " " " सूत्र पंक्ति ८४ ८६ " " ८६ ८६ 2 2 2 = 2 = 2 = 22 ८७ १३ " ९३ ९३ ९३ १ ९३ ९४ 2 = 2= : 2 :::::::::: १०० ६४० १००| १. हे? यावत् १. २ ६४१ १०१ ३ ८. ४ ३ x x 5:50 २ কর ३ " ४ २,५ wwwwww ५. ६ राजगृह नगर यावत् मृषावाद यावत् विरमण यावत् - विरमण परिभोग में नहीं आते। ७ अशुद्ध अधर्मास्तिकाय, द्वीन्द्रिय की पृच्छा । कल्योज है। एकेन्द्रियों की द्वीन्द्रिय वैमानिकों की नैरयिक सिद्धों की वनस्पतिकायिक में स्यात् कल्योज है। ४,५ कौन पुरुष -देवियां -देवियों की -स्त्रियों मनुष्य स्त्रियों की वक्तव्यता -देवियों असुरकुमार देव वाले। जो असुरकुमार देव हैं, होता है। जो वाला है, पूर्ववत् नहीं होता। भगवन्! जो होता है, जो हुए पूर्ववत् यावत् मायी मिध्यादृष्टि उपपन्त्रक, अमायी जो मायी जो अमायी असुरकुमार ? पूर्ववत् । 26 शुद्ध है (भ. ७/२१९) यावत् राजगृह (भ. १/४-१०) यावत् मृषावाद (भ. १/३८४) यावत् विरमण (भ. १/३८५) यावत् विरमण, परिभोग में आते हैं, कुछ जीवों के परिभोग में नहीं आते। अधर्मास्तिकाय द्वीन्द्रिय-पृच्छा। कल्योज हैं। एकेन्द्रिय द्वीन्द्रियों वैमानिक नैरयिकों सिद्ध वनस्पतिकायिकों में कृतयुग्म, अजघन्य- अनुत्कृष्ट-पद में स्यात् कृतयुग्म यावत् स्यात् कल्योज है । देवियां भी देवियां - स्त्रियां इस प्रकार मनुष्य स्त्रियां (वक्तव्य ह) देवियां असुरकुमार देव वाले। उनमें जो असुरकुमार देव है, होता है। उनमें जो वाला है पूर्ववत् कौन-सा पुरुष नहीं होता ? भगवन्! उनमें जो होता है। उनमें जो हुए० ? इसी प्रकार सू. ९७, ९८ की भांति यावत् मायि मिथ्यादृष्टि-उपपत्रक- अमायि उनमें जो मायि उनमें जो अमायि असुरकुमार ? इसी प्रकार (सू. १००० की भांति पृष्ठ सूत्र पंक्ति ६४१ १०१ १ ६४१ ६४१ १०३ | " " " १०२ " ६४१ १०३ | १०३ " " ६४१ १०४ | १०४ ६४१ "7 2 ==== १०५ १०५ " ६४२ १०७ " १०८ ६४२ १०९ ६४२ ६४२ ९ " ६४१ १०४ १० ११ " १०४ ३ १ १ " 5:0 " ९ " ७ ८ १०९ ७-८ "" ३ " १११ शीर्षक ६४३ ११९ १ " " = or or x n ३ ६४३ ११९ २ २ ३ ३ I ६४३ ११९ ५, ६ ६. ६ ७ १ ११० | १ राख की पृच्छा । अशुद्ध शुद्ध विकलेन्द्रिय को छोड़कर एकेन्द्रिय, एकेन्द्रिय और विकलेन्द्रिय को छोड़कर यावत् वैमानिकों यावत् वैमानिक भव्य नैरयिक अनंतर भव्य (पंचेन्द्रिय तिर्यग्योनिक में उत्पन्न होने की योग्यता प्राप्त नैरयिक जीव) अनंतर भव्य (पृथ्वीकायिक में उपपन्न होने की योग्यता प्राप्त) असुरकुमार स्थित है उसका करता है यावत् वैमानिक, उपपात करवाना चाहिए-उपपात वक्तव्य है, उसी प्रकार " ६४३ १२०, १ २ ६४३ | १२२ | १२० १२१ १. भव्य असुरकुमार स्थित है, उसका करता है, यावत् वैमानिक । उपपात वक्तव्य है, पूर्ववत् । चाहता है, वह चाहता है वह मायी मिथ्यादृष्टि उपपन्नक, अमायी माथि मिध्यादृष्टि-उपपन्नक, अमायि उनमें जो मायी करता है, यावत् पाता। जो अमायी करता है, यावत् कहता है नागकुमार ? पूर्ववत् । है। नैश्चयिक है। नैश्चयिक नीला इनकी वक्तव्यता पूर्ववत् । वर्ण यावत् वर्ण का आदि पद राजगृह नगर यावत् गौतम ने इस हैं-केवली हैं। यक्षावेश दो भाषाएं इस प्रकार कहते हैं यावत् हून केवली यक्षावेश हैं, न केवली यक्षावेश पर दो केवली असावद्य उपधि के कितने प्रकार प्रज्ञप्त हैं? उपधि के कितने प्रकार प्रज्ञप्त हैं? उपधि के तीन प्रकार प्रज्ञप्त हैं। नैरयिकों की पृच्छा उनमें जो मायि करता है यावत् पाता। उनमें जो अमायि करता है यावत् चाहता है नागकुमार० ? इसी प्रकार । है, नैश्चयिक है, नैश्चयिक हरा (ये पूर्ववत् वक्तव्य हैं।) |राख-पृच्छा वर्ण वाली यावत् वर्ण आदि का पद राजगृह (भ. १/४-१०) यावत् (गौतम ने) इस है-इस प्रकार निश्चित ही केवली हैं। इस प्रकार निश्चित ही यक्षावेश केवली सदैव दो भाषाएं (इस प्रकार कहते हैं) (भ. १ / ४२१) यावत् वे हूं-निश्चित ही केवली न यक्षावेश हैं, निश्चित ही केवली न यक्षावेश पर कभी भी दो केवली सदैव असावद्य उपधि कितने प्रकार की प्रज्ञप्त है ? उपधि कितने प्रकार की प्रज्ञप्त है ? उपधि तीन प्रकार की प्रज्ञप्त है। नैरयिकों के पृच्छा।

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