Book Title: Bhagwati Sutra Part 02
Author(s): Kanakprabhashreeji, Mahendrakumar Muni, Dhananjaykumar Muni
Publisher: Jain Vishva Bharati
View full book text
________________
पृष्ठ | सूत्र पंक्ति अशुद्ध ६४३ / १२१/ २ |गौतम! उपधि के दो प्रकार प्रज्ञप्त हैं। गौतम ! (नैरयिकों के) उपधि दो प्रकार
की प्रज्ञप्त है। | ३ तीन उपधि प्रज्ञप्त हैं।
तीन प्रकार की उपधि प्रज्ञप्त हैं। २ उपधि के तीन प्रकार प्रज्ञप्त हैं। उपधि तीन प्रकार की प्रज्ञप्त है। १.२ प्रकार के प्रज्ञप्त हैं?
प्रकार का प्रज्ञप्त है। १ के परिग्रह प्रज्ञप्त हैं?
का परिग्रह प्रज्ञप्त है? १ के कितने प्रकार प्रज्ञप्त हैं? | कितने प्रकार का प्रज्ञप्त है? २ के तीन प्रकार प्रज्ञप्त हैं। तीन प्रकार का प्रज्ञप्त है। १ के प्रणिधान-प्रज्ञप्त हैं? का प्रणिधान प्रज्ञप्त है?
इसी प्रकार। पृथ्वीकायिकों की पृच्छा। पृथ्वीकायिकों के पृच्छा। १ द्वीन्द्रियों की पृच्छा
द्वीन्द्रियों के पृच्छा। २ के प्रणिधान प्रज्ञप्त हैं? का प्रणिधान प्रज्ञप्त है, चतुरिन्दियों
चतुरिन्द्रियों के प्रणिधान प्रज्ञप्त हैं। यावत् का प्रणिधान प्रज्ञप्त है यावत् ४ वैमानिक
वैमानिकों की वक्तव्यता। १ के कितने प्रकार प्रज्ञप्त हैं? कितने प्रकार का प्रज्ञप्त है?
पृष्ठ | सूत्र पंक्ति अशुद्ध |६४७| १४२/२६ | द्वारा यावत्
द्वारा (भ. २/९७) यावत् |६४७ | १४३| ३ | अविज्ञात,
अविज्ञात ५ है वह
| है, वह |५,६ में वर्तन करता है, अर्हत्-प्रज्ञप्त में बर्तन करता है,
|धर्म की आशातना में वर्तन करता है। ., ६ आशातना करता है वह आशातना में वर्तन करता है, वह ६४७/ १४३| ७ | आशातना करता है,
आशातना में वर्तन करता है, दोनों बारव १४५ १ | धर्म कहा
धर्म का निरूपण किया (ओवाइयं,
सू. ७१-७९) १४७ ४ वक्तव्यता वैसे ही मढुक की | वैसे ही (महुक की वक्तव्यता।)
|वक्तव्यता। ,, | ५ | होगा यावत् सब दुःखों का अंत होगा (भ. १२/२७,२८) यावत् (सब
दुःखों का) अंत १ ऋद्धि यावत्
ऋद्धि (भ. १/३३९) यावत् क्या वे शरीर
वे शरीर क्या
-स्पृष्ट हैं? ६ क्या उन शरीरों का अंतर उन शरीरों के अंतर क्या
पूर्ववत्।
२
के तीन प्रकार प्रज्ञप्त हैं,
तीन प्रकार का प्रज्ञप्त है,
"
है?
दोनोंबार
पृष्ठ सूत्र पंक्ति अशुद्ध १५९| १ | राजगृह नगर यावत् गौतम ने इस राजगृह (भ. १/४-१०) थावत् प्रकार
(गौतम ने) इस प्रकार सर्वत्र | ईर्यापथिकी-क्रिया
ऐपिथिकी क्रिया सर्वत्र साम्परायिकी-क्रिया
साम्परायिकी क्रिया ६ कहा जाता है।
कहा जा रहा है। २ जनपद विहार
जनपद-विहार ३ महावीर यावत्
महावीर (भ. ८/२७१) यावत् १,२ | इन्द्रभूति नाम का अनगार यावत् इन्द्रभूति नामक अनगार (भ. १/९)
यावत् ३ विहरण कर रहे थे।
रहते हैं। असंवृत एकान्त-दण्ड यावत् असंवृत, एकान्त-दण्ड और एकान्तएकान्त-बाल
बाल २ अभिहत यावत्
| अभिहत (भ. ८/२८७) यावत् | १ | इस प्रकार कहा–उत्तर दिया, | इस प्रकार उत्तर दिया, | ३ |न अति दूर न अति निकट यावत् न अति निकट न अति दूर (भ. १
१०) यावत् ४ नहीं है,
नहीं हैं, गौतम! अन्ययूथिकों ने गौतम! तुमने अन्ययूथिकों को अन्ययूथिकों ने
अन्ययूथिकों को देखता नहीं।
नहीं देखता देखता नहीं।
नहीं देखता ३ है। यावत्
है। इस प्रकार यावत् जानता है, नहीं देखता है । यावत् जानता, नहीं देखता । इस प्रकार यावत् जानता-देखता है।
जानता-देखता है; नहीं देखता।
नहीं देखता; १ | परमाणु-पुद्गल को जानता-देखता नहीं देखता; परमाणु-पुद्गल को क्या
है अथवा नहीं जानता जानता-देखता है? अथवा नहीं जानता, |२,३ | भांति आघोवधिक की वक्तव्यता, भांति (भ. १८/१७४-१७६)
परमाणु की भांति अनन्त-प्रदेशिक | आधोवधिक भी (वक्तव्य है) यावत स्कन्ध की वक्तव्यता। अनन्तप्रदेशिक स्कन्ध (वक्तव्य है)
जैसे अनन्तप्रदेशिक स्कन्ध के विषय में छद्मस्थ मनुष्य के चार भंग बतलाप
हैं वहां तक वक्तव्य है। ४ | गौतम! ज्ञान साकार होता है। और गौतम! उसका ज्ञान साकार होता है दर्शन
और उसका दर्शन १ | मनुष्य क्या
मनुष्य (क्या) | गौतम ! ज्ञान साकार होता है और गौतम ! उसका ज्ञान साकार होता है दर्शन
और उसका दर्शन १ | राजगृह नगर यावत् गौतम ने इस राजगृह (भ. १/४-१०) यावत्
(गौतम ने) इस १८३] २ -नैरपिक है?
-नैरयिक हैं?
0
मनः-दुष्प्रणिधान, का सुप्रणिधान प्रज्ञप्त है? इसी प्रकार। | यह कहकर (भ. १/५१) यावत् रहते
२ मनः-दुष्प्रणिधान। १ के सुप्रणिधान प्रज्ञप्त हैं? २ | पूर्ववत्। २ यावत् विहरण करने लगे।
।
दोनों बार जलाता हैं?
जलाता है, | छविच्छेद-अंग-भंग
छविच्छेद-अंग-भंग ६ |संक्रमण (प्रवेश) प्रवेश नहीं होता। क्रमण (प्रवेश) नहीं होता।
|वैसे ही असुरकुमारों की वैसे ही क्या असुरकुमारों की ३ | प्रकार यावत्
प्रकार (जीवा. ३/७७५) यावत् हां, है।
हां, करते हैं। तीन-हजार-वर्ष उत्कृष्टतः तीन-हजार-वर्ष, उत्कर्षतः
हां, करते हैं।
बतलाते हैं, आढ्य यावत् जानने वाला, यावत् समवसृत हुए, परिषद् यावत्
१ २
३ | किया यावत् ९ पूर्ववत् रूपि-काय
बतलाते हैं। आन्य (भ. २/९४) यावत् जानने वाला (भ. २/९४) यावत् समवसृत हुए। परिषद् (ओवाइयं, सू. २२-५२) यावत् किया (भ. २/९७) यावत् पूर्ववत् (भ. ७/२१३) यावत् रूपिकाय कैसे है?' (धर्मास्तिकाय नहीं देखते।) श्रमणोपासकों में तुम कैसे हो,
९ कैसे है?
धर्मास्तिकाय ४ नहीं देखते। १.२ तुम कैसे श्रमणोपासक हो;
|-वर्ष उत्कृष्टतः
-वर्ष, उत्कर्षतः | तीन-सौ- उत्कृष्टतः तीन-सौ-, उत्कर्षतः | कौन हैं, यावत्
कौन हैं यावत् | देव असुरेन्द्र को
असुरेन्द्र (असुरकुमार-देव) (?) को आनत-प्राणत-, आरण- आनत-प्राणत-आरणकर्म-पुद्गलों
-कर्म-पुद्गलों |-वैजयन्त-, जयन्त-अपराजित-देव -वैजयन्त-जयन्त - अपराजित-देव तीन-सौ- उत्कृष्टतः | तीन-सौ-, उत्कर्षतः पांच-सौ-वर्ष |
| में भोगकर क्षीण कर देते हैं। ये जो देव हैं यावत् पांच-हजार-वर्ष में भोगकर क्षीण करते हैं। ये जो देव है यावत् ।
अरणि-सहगत अग्निकाय के रूप
१२ अरणि-सहगत रूप ५,१९ हां है। २३ नहीं होता, इस प्रकार
नहीं होता (अज्ञात और अदृष्ट का अस्तित्व नहीं होता), इस प्रकार नहीं होगा। यह
२४ नहीं होगा। अज्ञात और अदृष्ट
अस्तित्व नहीं होता। यह