Book Title: Bhagwati Sutra Part 02
Author(s): Kanakprabhashreeji, Mahendrakumar Muni, Dhananjaykumar Muni
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 546
________________ ५ له ५३२ पृष्ठ | सूत्र पंक्ति अशुद्ध पृष्ठ सूत्र पंक्ति अशुद्ध ५३२ ७५ | १ चाहते हैं, वह चाहता है, वह ५४३/१३६३,५,७| देवों -देवों १,२ करते हैं? करता है? |२१ | आनत, प्राणत, आरण और आनत-, प्राणत-, आरण- और सिंहासन का निर्माण करता है, सिंहासन की विकुर्वणा करता है, शतक १५ आहत नाट्यों यावत् विहरण करता है| आहत-नाट्यों यावत् रहता है। | ५ | आयुष्मन्'! 'आयुष्मन्! ५३२ विहरण करता है। रहता है। ६ | अनर्थ है। अनर्थ है। राजगृह नगर यावत् | राजगृह (नगर) (भ. १/४-८) | २ |संभ्रम- रहित | संभ्रम-रहित ५३३ दस-प्रदेशी। दशप्रदेशिक (स्कंध)। १ | सुनकर अवधारण कर सुनकर, अवधारण कर -प्रदेशावगाढ -प्रदेशावगाढ पुद्गल। सुकुमार हाथ-पैर वाली सुकुमार-हाथ-पैर वाली ५३४ असंख्येय-प्रदेशावगाढ की असंख्येय-प्रदेशावगाढ पुद्गल ब्राह्मण रहता था वह समृद्ध यावत् ब्राह्मण रहता था-वह समृद्ध (भ. २॥ भव-तुल्य है। भव-तुल्य है? |९४) यावत् ५३४ २४ | तिर्यग्योनिक की तिर्यग्योनिक ४ | ऋग्वेद यावत् अनेक ब्राह्मण और ऋग्वेद (भ. २/२४) यावत् अनेक | मनुष्य की मनुष्य ब्राह्मण- और | २९ | -कृष्ण की -कृष्ण | २ | (भिक्षुत्व वृत्ति) (भिक्षुत्व-वृत्ति) दोनों बार ४ | गोबहुल ब्राह्मण का गौशाला गोबहुल ब्राह्मण की गौशाला | ४५ परिमंडल संस्थान परिमंडल-संस्थान | १ | सुकुमार हाथ-पैर | सुकुमार-हाथ-पैर तरुण यावत् तरुण (भ. १४/३) यावत् | सर्वत्र | उच्च, नीच तथा मध्यम कुलों उच्च-, नीच- तथा मध्यम-कुलों अभी अभी अभी-अभी ५६४ श्रमण निग्रंथ श्रमण-निग्रंथ धारा निपातवृष्टि , धारा-निपात-वृष्टि, शीर्षक | अबाधा-अतर-पद अबाधा-अंतर-पद ५७९ १ सौधर्म-ईशान कल्प सौधर्म-ईशान-कल्प |५५१ २६ | ४ बजी, १ सौधर्म-ईशान और सौधर्म-ईशान- और ५५१ 'अहो ! दानम् अहो ! दानम्' 'अहो! दानम्, अहो! दानम्' सनत्कुमार-माहेन्द्र और सनत्कुमार-माहेन्द्र- और ५७९ १ ब्रह्मलोक और ब्रह्मलोक-और |५५२ द्रव्यशुद्ध, दाताशुद्ध द्रव्य-शुद्ध, दाता-शुद्ध, १ लांतक और लांतक- और ५५३ २ | परीत किया, उस परीत किया। उस ३ आनत-प्राणत और आनत-प्राणत- और | अवधारण कर, अवधारण कर १ शालयष्टिक-वृक्ष शालयष्टिका-शालवृक्ष की टहनी सनिवेश वर्णक सनिवेश-वर्णक उदुम्बरयष्टिका-वृक्ष उदुम्बरयष्टिका उदुम्बरवृक्ष की प्रतिग्राहक शुद्ध, त्रिविध प्रतिग्राहक शुद्ध-इस प्रकार त्रिविध टहनी रत्नों की धारा रत्नों की धारा५३८/१०९/ २२ |रूद्राक्ष आभरण, रुद्राक्ष-आभरण, शरद् काल समय शरद्-काल-समय , ,R८.२९ अम्मड़ अम्मड तिल पुष्प तिल-पुष्प ५४० | ११११०,१२ अम्मड़ अम्मड का उपवास तपःकर्म में के उपवास) रूप तपःकर्म के साथ ५४१ | ११६| २ | करता है। करता है, जूंएं उसकी जटाओं से निकल जूएं चारों ओर से सम्पूर्णतया निकल , ११६| ३ करता है। कूट-पीस कर करता है, कूट-पीस कर गिर रही थी [गिर रही थीं करता है, वह उन जूओं को वह उन गिरी हुई, गिरी हुई जूओं को ५४२/१२३| ३ | हां गौतम! हां, गौतम! पुनः सिर में -पुनः वहीं-वहीं (सिर आदि में) ५४२/१२७३ स्तनितकुमार की स्तनितकुमारों के (पुद्गल) | देखकर मेरे देखकर तुम मेरे .. | १२८/१,२ | पृथ्वीकायिक जीवों पृथ्वीकायिक-जीवों | एक चुल्लु पानी एक चुल्लु-भर पानी ५४२ मनुष्यों की मनुष्यों के (पुद्गल) १४ | वनस्पतिकायिक जीवों वनस्पतिकायिक-जीवों वैमानिकों की वैमानिकों के (पुद्गल) ., वनस्पतिकायिक जीव वनस्पतिकायिक-जीव असुरकुमार की असुरकुमारों के (पुद्गल) की ||५५८ ४ | हो गया। प्रज्ञप्त है। " १२९ शीर्षक इष्ट-अनिष्ट-आदि-पुद्गल-पद १ | कुल्माष पिण्डिका कुल्माष-पिण्डिका ५४२/१२९/ २ की भणिति है, भणित हैं, .. | एक चुल्लु भर पानी एक चुल्लु-भर पानी ३ पद्गलों की पुद्गल भी २ बेले बेले बेले-बेले पृष्ठ | सूत्र पंक्ति अशुद्ध | २ | आतापन भूमि आतापन-भूमि ३ | जिन-प्रलापी, यावत् जिन-प्रलापी यावत् ८ जिन-प्रलापी है, यावत् जिन-प्रलापी है यावत् ९ | जिन-प्रलपी हैं, यावत् जिन-प्रलापी हैं यावत् अवभास वाला, यावत् अवभास वाला यावत् कुंभकारापण था कुंभकारापण था, अनन्त-गुण अनन्त-गुणा अनन्त-गुण अनन्त-गुणा |-गुण -गुणा १ श्रमण निग्रन्थों श्रमण-निर्ग्रन्थों प्रति-प्रेरणा प्रतिप्रेरणा ६ प्रति-प्रेरणा प्रतिप्रेरणा ७ | प्रत्युपचार तिरस्कार प्रत्युपचार-तिरस्कार १०१ १६ करते हैं, करते हैं १७ प्रवृत्त हुई है, प्रवृत्त हुई है १०१ | २१ । इस प्रकार इसी प्रकार २३ | १. सूक्ष्म बोन्दि कलेवर २. बादर १. सूक्ष्म-बोन्दि-कलेवर २. बादरबोन्दि कलेवर बोन्दि-कलेवर २४ जो सूक्ष्म बोन्दि कलेवर जो सूक्ष्म-बोन्दि-कलेवर २४ जो बादर बोन्दि कलेवर जो बादर-बोन्दि-कलेवर ४० | मानस में मानुषोत्तर ५२ | सुकुमाल सुकुमार ,, ५,७८ गौतम पुत्र गौतम-पुत्र 'पोट्ट परिहार'! में 'पोट्ट परिहार' में आगया। आ गया, |, १०४ शीर्षक: गोशाल द्वारा सर्वानुभूति का भस्म राशि-करण-पद ५६८ | १०५ शीर्षक | गोशाल द्वारा सर्वानुभूति का भस्म राशि-करण-पद १०७/ ११ गोशाल! तुम वही हो, वही तुम्हारी गोशाल! वही तुम्हारी छाया है, अन्य छाया है, तुम अन्य नहीं हो। नहीं है। ११३/ २ तपःतेज से अनाविष्ट होकर तप से, तेज से पराभूत होकर ११३| ३ | छास्थ-अवस्था में छद्मस्थ-अवस्था में ही | ५ है। उनमें है? उनमें श्रमण निर्ग्रन्थों ने | श्रमण-निर्ग्रन्थों ने ५ | हो गया। क्रोध हो गया, क्रोध किञ्चित आबाधा, किञ्चित् आबाधा ६ में, अथवा में अथवा ४ आ गया। | १० | विहरण कर रहा था रहता था | ८ | पाप कर्म पाप-कर्म .. | १३ | आर्यों! मंखलिपुत्र आर्यो! मंखलिपुत्र १४ पाप कर्म पाप-कर्म |" करता है। उसे आ गया,

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