Book Title: Bhagwati Sutra Part 02
Author(s): Kanakprabhashreeji, Mahendrakumar Muni, Dhananjaykumar Muni
Publisher: Jain Vishva Bharati
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पृष्ठ
४५३ ६४
४६२ ८७
१
४६३ ८७ ३-६ वैमानिकों में परिवर्त की वक्तव्यता। इसी प्रकार वैक्रिय पुद्गल परिवर्त की भी वक्तव्यता। इसी प्रकार यावत् आनापान पुद्गल परिवर्त की वैमानिकों में वक्तव्यता। यह परिवर्त पृथक् पृथक् अनेक जीवों की अपेक्षा चौबीस दंडकों में ही होता है।
रूप में असुरकुमार की भांति वक्तव्यता
सूत्र पंक्ति
२
४६३ ९० ७
पृष्ठ सूत्र पंक्ति
५६९ ११४२,३
५६९ ११४ ४.५
पृष्ठ सूत्र पंक्ति
६२३
१-४
६२४
अशुद्ध
हृष्ट-तुष्ट हो गई (भ. १/१५२-१५५) की वक्तव्यता, वैसे ही प्रवर्जित हो गई यावत हे ? भविष्य
पृष्ठ सूत्र पंक्ति
६३०
३१ शीर्षक
६३०
३१ १-५
अशुद्ध
तपः तेज से पराभूत होकर, मेरा शरीर पित्तज्वर से व्याप्त नहीं होगा, उसमें जलन पैदा नहीं होगी, मैं छह माह के भीतर मृत्यु को प्राप्त नहीं करूंगा।
तपः- तेज से पराभूत होकर तुम्हारा शरीर पित्तज्वर से व्याप्त हो जाएगा, उसमें जलन पैदा हो जाएगी,
शुद्ध
हृष्ट-तुष्ट हो गई, शेष जैसे देवानंदा (की वक्तव्यता), वैसे ही प्रव्रर्जित हो गई (भ. ९ / १५२ - १५५) यावत् है ? अनन्त भविष्य
वैमानिकों के इस प्रकार वैक्रिय-पुद्गल परिवर्त भी (वक्तव्य हैं)। इस प्रकार यावत् वैमानिकों के आनापान पुद्गल परिवर्त (वक्तव्य हैं)। ये पृथक्-पृथक् (अनेक जीवों की अपेक्षा) सात परिवर्त चौबीस दण्डकों में होते हैं।
रूप में जैसे असुरकुमार के रूप में परिवर्त) (भ. १२ / ८९ में) (बतलाए गए), (वैसे बतलाने चाहिए)।
शतक १५
शुद्ध
तप से तेज से पराभूत होने पर, पित्तज्वर से व्याप्त शरीर वाला हो और जलन से आक्रान्त हो में छह माह के भीतर छद्यस्थ अवस्था में ही मृत्यु को प्राप्त नहीं करूंगा,
तप से तेज से पराभूत होने पर पित्तज्वर से व्याप्त शरीर वाला हो और जलन से आक्रान्त हो
शतक १७
अशुद्ध
भंते! पृथ्वीकायिक जीव शर्कराप्रभा पृथ्वी पर समवहत होता है, समवहत होकर सौधर्म कल्प में पृथ्वीकायिक के रूप में उपपन्न होने के योग्य है ?
अशुद्ध
इस प्रकार जैसे रत्नप्रभा पृथ्वीकायिक का उपपात बतलाया गया है। वैसे ही शर्कराप्रभा के पृथ्वीकायिक का उपपात भी वक्तव्य है यावत् ईषत् प्राग्भारा में इस प्रकार जैसे रत्नप्रभा की वक्तव्यता इसी प्रकार यावत् अधः सप्तमी में समवहत होकर ईषत् प्राग्भारा में उपपात की वक्तव्यता। शेष पूर्ववत् ।
७२ १-८ भंते! पृथ्वीकायिक सौधर्म कल्प पर समवहत होता है। समवहत होकर जो भव्य इसी रत्नप्रभा पृथ्वी में पृथ्वीकायिक के रूप में उपपन्न होने वाला है। भंते! क्या वह पहले उपपन्न होगा, पश्चात् स्थान को संप्राप्त करेगा ?
शेष पूर्ववत् । जैसे रत्नप्रभा के पृथ्वीकायिक का सर्व कल्पों में यावत् ईषत् प्राग्भारा में उपपात इसी प्रकार सौधर्मपृथ्वीकायिक का सातों पृथ्वियों में उपपात वक्तव्य हे यावत् अधःसप्तमी में इस प्रकार जैसे सौधर्म पृथ्वीकायिक का सब पृथ्वियों में उपपात इसी प्रकार यावत् ईषत् प्राग्भारा पृथ्वीकायिक से सर्व पृथ्वियों में उपपात यावत् अधः सप्तमी में ।
भंते! पृथ्वीकायिक-जीव सौधर्म कल्प पर समवहत होता है, समवहत होकर जो भव्य इसी रत्नप्रभा पृथ्वी में पृथ्वीकायिक जीव के रूप में उपपन्न होने वाला है, भंते! क्या वह पहले उपपन्न होगा, पश्चात् स्थान को संप्राप्त करेगा ? शेष पूर्ववत्। जैसे रत्नप्रभा (पृथ्वी) पर ( समुद्घात के पश्चात् ) पृथ्वीकायिक जीव का सर्व कल्पों में यावत् ईषत् प्राग्भारा में उपपात करवाया गया वैसे ही सौधर्म-पृथ्वीकायिकजीव का सातों पृथ्वियों में उपपात करवाना चाहिए यावत् अधः सप्तमी में इस प्रकार जैसे सौधर्म पृथ्वीकायिक- जीव का सब पृथ्वियों में उपपात करवा गया उसी प्रकार यावत् ईषत् प्राग्भारा पृथ्वीकायिक जीव का सर्व पृथ्वियों में उपपात करवाना चाहिए यावत् अधः सप्तमी में।
शतक १८
शुद्ध
भंते! पृथ्वीकायिक-जीव शर्कराप्रभा पृथ्वी पर समवहत होता है, समवहत होकर जो भव्य सौधर्म कल्प में पृथ्वीकायिक जीव के रूप में उपपन्न होने वाला है० ?
ज्ञानी की सर्वत्र सम्यग्दृष्टि की भांति वक्तव्यता । आभिनिबोधिक ज्ञानी यावत् मनः पर्यव ज्ञानी की आहारक की भांति वक्तव्यता, इतना विशेष है जिनके जो है केवलज्ञानी की नोसंज्ञी नोअसंज्ञी की भांति वक्तव्यता। अज्ञानी यावत् विभंग ज्ञानी की आहारक की भांति वक्तव्यता ।
इस प्रकार जैसे रत्नप्रभा (पृथ्वी) पर ( समुद्घात के पश्चात् ) पृथ्वीकायिक जीव का उपपात (सौधर्म कल्प आदि में) करवाया गया, वैसे ही शर्कराप्रभा (पृथ्वी) पर ( समुद्घात के पश्चात् ) पृथ्वीकायिक जीव का उपपात (सौधर्म कल्प से लेकर) यावत् ईषत् प्राग्भारा (पृथ्वी) में करवाना चाहिए।
शुद्ध
(ज्ञान-द्वार)
ज्ञानी (एकवचन बहुवचन में) सर्वत्र सम्यग्दृष्टि की भांति (वक्तव्य है)। आभिनिबोधिक ज्ञानी (एकवचन बहुवचन में) यावत् मनः पर्यव ज्ञानी (एकवचन बहुवचन में) आहारक (भ. १८/२४) की भांति (वक्तव्य है ), इतना विशेष है जिसके जो है । केवलज्ञानी ( एकवचन बहुवचन में) नोसंज्ञि - नोअसंज्ञी (भ. १८/२६) की भांति (वक्तव्य है) । अज्ञानी (एकवचन बहुवचन में) यावत् विभंगज्ञानी (एकवचन बहुवचन में) आहारक की भांति (वक्तव्य हैं) ।
शतक १८
निम्नांकित स्थानों में सर्वत्र कितने गंध (अशुद्ध) की जगह कितनी गंध वाला (शुद्ध) वर्ण (अशुद्ध) की जगह वर्ण वाला (शुद्ध)
गंध (अशुद्ध) की जगह गंध वाला (शुद्ध) रस (अशुद्ध) की जगह रिस वाला (शुद्ध) पढ़ें
६४२ / १०७ - ११४ सर्वत्र ६४३ / ११४ - ११७; ६७७ / २६-२८,३०-३६
सर्वत्र मल, मूत्र, श्लेष्म, नाक के मैल, शरीर के गाढ़े मेल का परिष्ठापन (अशुद्ध) की जगह उच्चार-प्रसवण क्ष्वेल सिंघाण जल्ल-परिष्ठापन (शुद्ध) पढ़ें।