Book Title: Bhagwati Sutra Part 02
Author(s): Kanakprabhashreeji, Mahendrakumar Muni, Dhananjaykumar Muni
Publisher: Jain Vishva Bharati
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श. ३५ : उ. १ : सू. ८-११
भगवती सूत्र ८. भन्ते! वे जीव क्या सात-वेदक होते हैं (सात-वेदनीय का वेदन करते हैं)? अथवा
असात-वेदक होते हैं? (आसाता-वेदनीय का वेदन करते हैं)? गौतम! वे जीव सातवेदक भी होते हैं, असातवेदक भी होते हैं। इसी प्रकार उत्पल-उद्देशक (भ. ११।९-११) की परिपाटी बतलानी चाहिए। सभी कर्मों के उदय वाले हैं, अनुदय वाले नहीं हैं। वे जीव छह कर्मों की उदीरणा करने वाले हैं, अनुदीरक नहीं हैं। वेदनीय
और आयुष्य-कर्म के उदीरक भी हैं, अनुदीरीक भी हैं। ९. भन्ते! वे (कृतयुग्म-कृतयुग्म-एकेन्द्रिय)-जीव क्या कृष्णलेश्य हैं....पृच्छा। गौतम! वे (कृतयुग्म-कृतयुग्म-एकेन्द्रिय)-जीव कृष्णलेश्य भी होते हैं, नीललेश्य भी होते हैं, कापोतलेश्य भी होते हैं, तेजोलेश्य भी होते हैं। वे जीव सम्यग्-दृष्टि नहीं होते, सम्यग्-मिथ्या-दृष्टि नहीं होते किन्तु वे मिथ्या-दृष्टि ही होते हैं। वे जीव ज्ञानी नहीं होते, अज्ञानी ही होते हैं वे जीव नियमतः दो अज्ञान वाले होते हैं, जेसे–मति-अज्ञानी और श्रुत-अज्ञानी। वे जीव मन-योगी नहीं होते, वचन-योगी नहीं होते, काय-योगी ही होते हैं। वे जीव साकार-उपयोग वाले भी होते हैं, अनाकार-उपयोग वाले भी होते हैं। १०. भन्ते! उन जीवों के शरीर कितने वर्ण वाले होते हैं?.....जैसा उत्पलोद्देशक (भ.
११।१७-२८) में बतलाया गया है वैसा सर्वत्र प्रष्टव्य है। गौतम! जैसे उत्पलोद्देशक में बतलाया गया है वैसे वे जीव उच्छ्वासक भी होते हैं, निश्वासक भी होते हैं, उच्छ्वास-निश्वासक नहीं हैं। वे जीव आहारक भी हैं, अनाहारक भी हैं। जीव विरत नहीं है, अविरत हैं, विरताविरत नहीं हैं। वे जीव क्रिया-सहित हैं, क्रिया-रहित नहीं हैं। वे जीव सप्तविध-बन्धक भी हैं, अष्टविध-बन्धक भी हैं। वे जीव
आहार-संज्ञा-उपयुक्त भी हैं यावत् परिग्रह-संज्ञा-उपयुक्त भी हैं। वे जीव क्रोध-कषायी भी हैं यावत् लोभ-कषायी भी हैं। वे जीव स्त्री-वेदक नहीं हैं, पुरुष-वेदक नहीं हैं, नपुंसक-वेदक हैं। वे जीव स्त्री-वेद-बन्धक भी हैं, पुरुष-वेद-बन्धक भी हैं, नपुंसक-वेद-बन्धक
भी हैं। वे जीव संज्ञी नहीं हैं, असंज्ञी हैं। वे जीव इन्द्रिय-सहित है, अनिन्द्रिय नहीं है। ११. भन्ते! वे कृतयुग्म-कृतयुग्म-एकेन्द्रिय-जीव काल की अपेक्षा से कितने समय तक रहते
गौतम! वे जीव जघन्यतः एक समय की स्थिति वाले होते हैं, उत्कर्षतः अनन्त-काल की स्थिति वाले होते हैं-अनन्त-अवसर्पिणी-उत्सर्पिणी तक उनकी स्थिति होती है-यह अनन्त-अवसर्पिणी-उत्सर्पिणी का समय वनस्पतिकायिक काल जितना होता है। इन जीवों के संवेध नहीं बतलाना चाहिए। (उत्पल-उद्देशक (भ. ११।३०-३४) में उत्पल-जीव का संवेध बतलाया गया था वैसा यहां संभव नहीं है)। इन जीवों का आहार जैसा उत्पल-उद्देशक (भ. १११३५) में बतलाया गया था वैसा बतलाना चाहिए, केवल इतना अन्तर है-व्याघात न हो तो ये जीव छहों दिशाओं से आहार ग्रहण करते हैं, व्याघात की अपेक्षा से कदाचित् तीन दिशाओं, कदाचित् चार दिशाओं और कदाचित् पांच दिशाओं से आहार ग्रहण करते हैं, शेष कथन उसी प्रकार समझना चाहिए। (जैसा उत्पल-उद्देशक में बतलाया
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