Book Title: Bhagwati Sutra Part 02
Author(s): Kanakprabhashreeji, Mahendrakumar Muni, Dhananjaykumar Muni
Publisher: Jain Vishva Bharati
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भगवती सूत्र
श. २४ : उ. २१,२२ : सू. ३१०-३१६
पूर्ववत् । भव की अपेक्षा - जघन्यतः दो भव-ग्रहण, उत्कृष्टतः चार भव-ग्रहण करता है । की अपेक्षा से जघन्यतः पृथक्त्व-वर्ष - अधिक इकतीस सागरोपम, उत्कृष्टतः दो-कोटि-पूर्व-अधिक-छासठ-सागरोपम - इतने काल तक रहता है, इतने काल तक गति - आगति करता है । इसी प्रकार शेष आठ गमक वक्तव्य हैं, केवल इतना विशेष है- स्थिति, अनुबन्ध और कायसंवेध यथोचित ज्ञातव्य हैं। शेष पूर्ववत् ।
उनहत्तरवां आलापक: मनुष्यों में सर्वार्थसिद्ध-अनुत्तरविमान के देवों का उपपात - आदि (तीसरा गमक : औधिक और उत्कृष्ट)
३११. भन्ते! सर्वार्थसिद्ध-देव जो मनुष्यों में उत्पन्न होने योग्य है (भन्ते ! वह कितने काल की स्थिति वाले मनुष्य के रूप में उत्पन्न होता है ? )
वही विजयादि देव की भांति वक्तव्यता, केवल इतना विशेष है - स्थिति - जघन्यतः और उत्कृष्टतः तेतीस सागरोपम। इसी प्रकार अनुबन्ध भी । शेष पूर्ववत् । भव की अपेक्षा दो भव-ग्रहण, काल की अपेक्षा से जघन्यतः पृथक्त्व-वर्ष - अधिक-तेतीस सागरोपम, उत्कृष्टतः कोटि-पूर्व-अधिक-तेतीस सागरोपम - इतने काल तक रहता है, इतने काल तक गति - आगति करता है।
(छट्टा गमक : जघन्य और उत्कृष्ट )
३१२. वही सर्वार्थसिद्ध देव जघन्य काल की स्थिति वाले मनुष्य में उत्पन्न होता है, वही वक्तव्यता, केवल इतना विशेष है - काल की अपेक्षा जघन्यतः पृथक्त्व ( दो से नौ ) - वर्ष - -अधिक-तेतीस -सागरोपम, उत्कृष्टतः भी पृथक्त्व-वर्ष - अधिक- तेतीस सागरोपम - इतने काल तक रहता है, इतने काल तक गति आगति करता है।
( नवां गमक : उत्कृष्ट और उत्कृष्ट )
३१३. वही सर्वार्थसिद्ध-देव उत्कृष्ट काल की स्थिति वाले मनुष्य के रूप में उत्पन्न होता है, वही वक्तव्यता, केवल इतना विशेष है - काल की अपेक्षा जघन्यतः कोटि - पूर्व-अधिक- तेतीस -सागरोपम, उत्कृष्टतः भी कोटि-पूर्व-अधिक - तेतीस सागरोपम- इतने काल तक रहता है, इतने काल तक गति आगति करता है। ये तीन ही गमक होते हैं, शेष गमक वक्तव्य नहीं है।
३१४. भन्ते ! वह ऐसा ही है । भन्ते ! वह ऐसा ही है ।
बाईसवां उद्देशक
सत्तरवां आलापक : वाणमंतर - देवों में असंख्यात वर्ष की आयु वाले असंज्ञी तिर्यञ्च- पञ्चेन्द्रिय-जीवों का उपपात - आदि
३१५. भन्ते! वाणमन्तर - देव कहां से उपपन्न होते हैं ? -क्या नैरयिक से उपपन्न होते हैं ? तिर्यग्योनिक से उपपन्न होते हैं ?. . इसी प्रकार नागकुमार - उद्देशक (भ. २४ / १४३, १४४) में असंज्ञी की उत्पत्ति की भांति अविकल रूप से वक्तव्य है। ३१६. भन्ते! यदि वाणमन्तर - देव संज्ञी - पञ्चेन्द्रिय तिर्यग्योनिक-जीवों से उपपन्न होते हैं तो
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