Book Title: Bhagwati Sutra Part 02
Author(s): Kanakprabhashreeji, Mahendrakumar Muni, Dhananjaykumar Muni
Publisher: Jain Vishva Bharati
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भगवती सूत्र
श. २४ : उ. २४ : सू. ३५६-३६० नव्वेवां आलापक : प्रथम चार अनुत्तरविमान के देवों में संज्ञी-मनुष्यों का उपपात-आदि ३५६. भन्ते! विजय-, वैजयन्त-, जयन्त- और अपराजित - देव (अनुत्तर - देव) कहां से उपपन्न होते हैं? वही (भ. २४/३५५ ) निरवशेष वक्तव्यता यावत् अनुबंध तक । केवल इतना विशेष है – इनमें उत्पन्न होने वाले मनुष्यों में संहनन प्रथम वज्र - ऋषभ - नाराच होता है। शेष पूर्ववत् । भव की अपेक्षा जघन्यतः तीन भव-ग्रहण, उत्कृष्टतः पांच भव-ग्रहण । काल की अपेक्षा जघन्यतः दो - पृथक्त्व-वर्ष - अधिक- इक्कत्तीस सागरोपम, उत्कृष्टतः तीन कोटि- पूर्व-अधिक छासठ-सागरोपम - इतने काल तक रहता है, इतने काल तक गति - आगति करता है। इसी प्रकार शेष आठ गमक वक्तव्य है, केवल इतना विशेष है -स्थिति और कायसंवेध यथोचित ज्ञातव्य हैं। मनुष्यों में लब्धि नौ ही गमकों में ग्रैवेयक - देवों में उपपद्यमान की भांति वक्तव्य है, केवल इतना विशेष है— संहनन - प्रथम वज्र - ऋषभ नाराच संहनन वाले ही उपपन्न होते हैं।
इक्यानवेंवां आलापक : सर्वार्थसिद्ध-देवों में संज्ञी-मनुष्यों का उपपात-आदि ३५७. भन्ते! सर्वार्थसिद्ध-देव कहां से उपपन्न होते हैं ? उपपात जैसा विजय आदि देवों की भांति यावत्
(पहला गमक)
३५८. भन्ते ! वह कितने काल की स्थिति वाले देवों के रूप में उपपन्न होता है ?
गौतम ! जघन्यतः तेतीस सागरोपम की स्थिति वाले, उत्कृष्टतः भी तेतीस सागरोपम की स्थिति वाले देव के रूप में उपपन्न होता है। अवशेष विजय आदि देवों में उपपद्यमान की भांति वक्तव्य है । केवल इतना विशेष है-भव की अपेक्षा - तीन भव-ग्रहण, काल की अपेक्षा – जघन्यतः दो पृथक्त्व (दो से नौ) -वर्ष - अधिक - तेतीस -सागरोपम, उत्कृष्टतः भी दो-कोटि-पूर्व-अधिक- तेतीस सागरोपम - इतने काल तक रहता है, इतने काल तक गति- आगति करता है ।
(सर्वार्थसिद्ध में दूसरा और तीसरा गमक नहीं है । )
(चौथा गमक)
३५९. वही अपनी जघन्य काल की स्थिति में उत्पन्न मनुष्य सर्वार्थसिद्ध-देवों में उपपन्न होता है, वही वक्तव्यता, केवल इतना विशेष है- अवगाहना - पृथक्त्व (दो से नौ) -रत्नी (हाथ) और स्थिति – पृथक्त्व ( दो से नौ) - वर्ष । शेष पूर्ववत् । कायसंवेध यथोचित ज्ञातव्य है । (पांचवां और छट्ठा गमक नहीं है ।)
(सातवां गमक)
३६०. वही अपनी उत्कृष्ट काल की स्थिति में उत्पन्न मनुष्य सर्वार्थसिद्ध-देव के रूप में उत्पन्न होता है । वही वक्तव्यता (भ. २४ / ३५९), केवल इतना विशेष है—अवगाहना–जघन्यतः पांच सौ धनुष, उत्कृष्टतः भी पांच सौ धनुष । स्थिति—जघन्यतः कोटि-पूर्व, उत्कृष्टतः भी कोटि-पूर्व यावत् भवादेश तक । शेष पूर्ववत् । काल की
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