Book Title: Bhagwati Sutra Part 02
Author(s): Kanakprabhashreeji, Mahendrakumar Muni, Dhananjaykumar Muni
Publisher: Jain Vishva Bharati
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श. ३४ : उ. १ : सू. १८-२३
भगवती सूत्र अपर्याप्तक के विषय में बतलाना चाहिए। इसी प्रकार अप्कायिक-जीव के चारों प्रकार के विषय में बतलाना चाहिए। सूक्ष्म-तेजस्कायिक-जीव के दो प्रकार के विषय में भी उसी प्रकार बतलाना चाहिए। १९. भन्ते! अपर्याप्त-बादर-तेजस्कायिक-जीव समय-क्षेत्र में मारणान्तिक-समुद्घात से समवहत होता है, समवहत होकर जो भव्य (अपर्याप्त-सूक्ष्म-पृथ्वीकायिक-जीव के रूप में उत्पन्न होने की योग्यता प्राप्त) ऊर्ध्व-लोक-क्षेत्र की (बस)-नाल के बाहर के क्षेत्र में अपर्याप्त-सूक्ष्म-पृथ्वीकायिक-जीव के रूप में उत्पन्न होने योग्य है, भन्ते! वह कितने समय वाली विग्रह-गति (अन्तराल-गति) से उत्पन्न होता है? गौतम! वह जीव दो समय वाली अथवा तीन समय वाली अथवा चार समय वाली विग्रह-गति (अन्तराल-गति) के द्वारा उत्पन्न होता है। २०. यह किस अपेक्षा से? जिस अपेक्षा से रत्नप्रभा-पृथ्वी के विषय में बतलाया गया उसी
अपेक्षा से सातों श्रेणियों के विषय में बतलाना चाहिए। (भ. ३४।३) इसी प्रकार यावत् । २१. भन्ते! अपर्याप्त-बादर-तेजस्कायिक-जीव समय-क्षेत्र में मारणान्तिक-समुद्घात से समवहत होता है, समवहत होकर जो भव्य (पर्याप्त-सूक्ष्म-तेजस्कायिक-जीव के रूप में उत्पन्न होने की योग्यता प्राप्त) ऊर्ध्व-लोक-क्षेत्र की (त्रस)-नाल के बाहर के क्षेत्र में पर्याप्त-सूक्ष्म-तेजस्कायिक-जीव के रूप में उत्पन्न होने योग्य है, भन्ते! (वह कितने समय वाली विग्रह-गति से उत्पन्न होता है?) शेष उसी प्रकार वक्तव्य है (भ. ३४।१९)। २२. भन्ते! अपर्याप्त-बादर-तेजस्कायिक-जीव समय-क्षेत्र में मारणान्तिक-समुद्घात से समवहत होता है, समवहत होकर जो भव्य (अपर्याप्त-बादर-तेजस्कायिक-जीव के रूप में उत्पन्न होने की योग्यता प्राप्त) समय-क्षेत्र में अपर्याप्त-बादर-तेजस्कायिक-जीव के रूप में उत्पन्न होने योग्य है, भन्ते! वह कितने समय वाली विग्रह-गति (अन्तराल-गति) से उत्पन्न होता है? गौतम! वह जीव एक समय वाली अथवा दो समय वाली अथवा तीन समय वाली विग्रह-गति (अन्तराल-गति) के द्वारा उत्पन्न होता है। २३. यह किस अपेक्षा से? जिस अपेक्षा से रत्नप्रभा-पृथ्वी के विषय में बतलाया गया है उसी अपेक्षा से सातों श्रेणियों के विषय में बतलाना चाहिए। इसी प्रकार (अपर्याप्त-बादर-तेजस्कायिक-जीव का उपपात) पर्याप्त-बादर तेजस्कायिक-जीव के रूप में जानना चाहिए। वायुकायिक-जीवों के रूप में और वनस्पतिकायिक-जीवों के रूप में (अपर्याप्त-बादर-तेजस्कायिक-जीव का) जैसे पृथ्वीकायिक-जीवों में उपपात करवाया गया उसी प्रकार चार भेदों के द्वारा उपपात करवाना चाहिए। इसी प्रकार पर्याप्त-बादर-तेजस्कायिक-जीव का भी इन्हीं स्थानों में उपपात करवाना चाहिए। वायुकायिक
और वनस्पतिकायिक-जीवों का जैसे पृथ्वीकायिक-जीव का उपपात बतलाया गया वैसा ही बतलाना चाहिए।
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