Book Title: Bhagwati Sutra Part 02
Author(s): Kanakprabhashreeji, Mahendrakumar Muni, Dhananjaykumar Muni
Publisher: Jain Vishva Bharati
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भगवती सूत्र
श. २५ : उ. ७ : सू. ५७३-५८०
इन्द्रिय- प्रतिसंलीनता पांच प्रकार की प्रज्ञप्त है, जैसे- श्रोत्रेन्द्रिय के विषय प्रचार का निरोध-श्रोत्रेन्द्रिय के इष्ट और अनिष्ट शब्दों के प्रति होने वाली श्रवण - प्रवृति का निरोध और श्रोत्रेन्द्रिय के विषयों में प्राप्त होने वाले अर्थों के प्रति राग और द्वेष का विनिग्रह । चक्षुरिन्द्रिय के विषय प्रचार का निरोध-चक्षुरिन्द्रिय के इष्ट और अनिष्ट रूपों के प्रति होने वाली दर्शन- प्रवृति का निरोध और चक्षुरिन्द्रिय के विषयों में प्राप्त होने वाले अर्थों के प्रति राग और द्वेष का विनिग्रह । इसी प्रकार यावत् स्पर्शेन्द्रिय के विषय प्रचार का निरोध-स्पर्शेन्द्रिय के इष्ट और अनिष्ट स्पर्शो के प्रति होने वाली स्पर्श प्रवृति का निरोध और स्पर्शेन्द्रिय के विषयों में प्राप्त होने वाले अर्थों के प्रति राग और द्वेष का विनिग्रह। यह है इन्द्रिय-प्रतिसंलीनता । ५७४. कषाय- प्रतिसंलीनता क्या है ?
कषाय- प्रतिसंलीनता चार प्रकार की प्रज्ञप्त है, जैसे- क्रोधोदय का निरोध और उदय - प्राप्त क्रोध का विफलीकरण । इसी प्रकार यावत् लोभोदय का निरोध और उदय प्राप्त लोभ का विफलीकरण । यह है कषाय प्रतिसंलीनता ।
५७५. योग - प्रतिसंलीनता क्या है ?
योग-प्रतिसंलीनता तीन प्रकार की प्रज्ञप्त है, जैसे- - मन- योग- प्रतिसंलीनता, वचन-योग- प्रतिसंलीनता, काय - योग- प्रतिसंलीनता ।
५७६. मन- योग- प्रतिसंलीनता क्या है ?
मन-योग- प्रतिसंलीनता है - अकुशल मन का निरोध, कुशलमन की उदीरणा और मन का एकीभाव-करण - एक आलंबन पर मन का नियोजन। यह है मन-योग- प्रतिसंलीनता । ५७७. वचन-योग-प्रतिसंलीनता क्या है ?
वचन-योग-प्रतिसंलीनता है - अकुशल वचन का निरोध, कुशलवचन की उदीरणा और वचन का एकत्रीभावकरण - मौन अथवा वाक्- संयम । यह है वचन - योग - प्रतिसंलीनता । ५७८. काय-योग-प्रतिसंलीनता क्या है ?
काययोग प्रतिसंलीनता उसके होती है जो व्यक्ति सुसमाहित है, प्रशान्त है, संहृत-पाणि-पाद- हाथ और पैर संहरण करने वाला, कच्छुए की भांति गुप्तेन्द्रिय, आलीन और प्रलीन होता है। यह है काय-योग-प्रतिसंलीनता है । यह है योग - प्रतिसंलीनता । ५७९. विविक्त - शयनासन सेवन क्या है ?
विविक्त-शयनासन-सेवन उसके होता है जो आरामों, उद्यानों, देवकुल, सभाओं, प्रपाओं अथवा स्त्री- पशु नपुंसक - वर्जित वसति योग में प्रासुक - एषणीय पीठ - फलक- शय्या - संस्तारक प्राप्त कर विहरण करता | यह है विविक्त शयनासन सेवन। यह है प्रतिसंलीनता । यह है बाह्य तप ।
५८०. आभ्यन्तर तप क्या है ?
आभ्यन्तर तप के छह प्रकार प्रज्ञप्त है, जैसे- १. प्रायश्चित्त, २. विनय, ३. वैयावृत्त्य, ४. स्वाध्याय, ५. ध्यान और ६. व्युत्सर्ग।
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