Book Title: Bhagwati Sutra Part 02
Author(s): Kanakprabhashreeji, Mahendrakumar Muni, Dhananjaykumar Muni
Publisher: Jain Vishva Bharati
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भगवती सूत्र
श. ३४ : श. १ : उ. १ : सू. ४,५ ४. भन्ते! अपर्याप्त-सूक्ष्म-पृथ्वीकायिक-जीव इस रत्नप्रभा-पृथ्वी में पूर्व (दिशा) के चरमान्त में (मारणान्तिक समुद्घात) से समवहत होता है, समवहत होकर जो भव्य पर्याप्त-सूक्ष्म-पृथ्वीकायिक-जीव के रूप में उत्पन्न होने की योग्यता प्राप्त) इस रत्नप्रभा-पृथ्वी में पश्चिम दिशा के चरमान्त में पर्याप्त-सूक्ष्म-पृथ्वीकायिक-जीव के रूप में उपपन्न होने योग्य है, भन्ते! वह कितने समय वाली विग्रह-गति (अन्तराल-गति) के द्वारा उपपन्न होता है? गौतम! वह जीव एक समय वाली अथवा दो समय वाली अथवा तीन समय वाली विग्रह-गति (अन्तराल-गति) के द्वारा उत्पन्न होता है। गौतम! इस अपेक्षा से कहा जा रहा है वह जीव एक समयवाली अथवा दो समय-वाली अथवा तीन समयवाली विग्रह-गति (अन्तराल-गति) के द्वारा उपपन्न होता है। (तीसरा आलापक) इसी प्रकार अपर्याप्त-सूक्ष्म-पृथ्वीकायिक-जीव (इस रत्नप्रभा-पृथ्वी में) पूर्व (दिशा) के चरमान्त में (मारणान्तिक)-समुद्घात करके (आयुष्य पूर्व कर) (इस रत्नप्रभा-पृथ्वी में) पश्चिम दिशा के चरमान्त में बादर-पृथ्वीकायिक-जीवों के अपर्याप्तकों में (एक, दो अथवा तीन सामयिक-विग्रह-गति के द्वारा) उपपन्न करवाना चाहिए। (चौथा आलापक) तब (अपर्याप्त-सूक्ष्म-पृथ्वीकायिक-जीव (इस रत्नप्रभा-पृथ्वी में) पूर्व दिशा के चरमान्त में (मारणान्तिक)-समुद्घात करके (आयुष्य-पूर्ण करके इस रत्नप्रभा-पृथ्वी में) पश्चिम दिशा के चरमान्त में बादर-पृथ्वीकायिक-जीवों के) पर्याप्तकों में (एक, दो अथवा तीन सामयिक विग्रह-गति के द्वारा उपपन्न करवाना चाहिए। इसी प्रकार अप्कायिक-जीवों में चार आलापक बतलाने चाहिए-(प्रथम आलापक) १. सूक्ष्म-पृथ्वीकायिक-अपर्याप्तक का सूक्ष्म-अप्कायिक-अपर्याप्तक में २. सूक्ष्म-पृथ्वीकायिक-अपर्याप्तक का सूक्ष्मअपकायिक-पर्याप्तक में ३. सूक्ष्म-पृथ्वीकायिक-अपर्याप्तक का बादर-अप्कायिकअपर्याप्तक में ४. सूक्ष्म-पृथ्वीकायिक-अपर्याप्तक का बादर-अपकायिक-पर्याप्तक में उपपन्न करवाना चाहिए। इसी प्रकार (दूसरा आलापक) १. सूक्ष्म-पृथ्वीकायिक-अपर्याप्तक-जीव का सूक्ष्म-तेजस्कायिक-अपर्याप्तक में २. सूक्ष्म-पृथ्वीकायिकअपर्याप्तक-जीव का सूक्ष्म-तेजस्कायिक-पर्याप्तक में उपपन्न करवाना चाहिए। ५. भन्ते! (तीसरा आलापक) अपर्याप्त-सूक्ष्म-पृथ्वीकायिक-जीव इस रत्नप्रभा-पृथ्वी में पूर्व (दिशा) के चरमान्त में मारणान्तिक-समुद्घात से समवहत होता है, समवहत होकर जो भव्य मनुष्य-क्षेत्र में अपर्याप्त-बादर-तेजस्काय में उपपन्न होने की योग्य प्राप्त मनुष्य-क्षेत्र में अपर्याप्त-बादर-तेजस्कायिक रूप में उपपन्न होने योग्य है, भन्ते! वह कितने समय वाली विग्रह-गति (अन्तराल-गति) के द्वारा उपपन्न होता है? शेष उसी प्रकार वक्तव्य है। (चौथा
आलापक) इसी प्रकार (अपर्याप्त-सूक्ष्म-पृथ्वीकायिक-जीव इस रत्नप्रभा-पृथ्वी में पूर्व दिशा के चरमान्त में मारणान्तिक-समुद्घात करके आयुष्य-पूर्ण कर मनुष्य-क्षेत्र में) पर्याप्त-बादर-तेजस्कायिक-जीव के रूप में (एक, दो अथवा तीन सामयिक विग्रह-गति के द्वारा) उत्पन्न करवाना चाहिए। (अपर्याप्त-सूक्ष्म-पृथ्वीकायिक-जीव इस रत्नप्रभा-पृथ्वी में पूर्व दिशा के चरमान्त में मारणान्तिक-समुद्घात-समवहत होता है, समवहत होकर) जिस प्रकार (चार आलापकों के द्वारा) अप्कायिक-जीवों में उपपात बतलाया गया था उसी प्रकार सूक्ष्म- और बादर-वायुकायिक-जोवों में (चार आलापक के द्वारा) उपपात करवाना
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