Book Title: Bhagwati Sutra Part 02
Author(s): Kanakprabhashreeji, Mahendrakumar Muni, Dhananjaykumar Muni
Publisher: Jain Vishva Bharati
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भगवती सूत्र
श. ३४ : उ. १: सू. ५-८
चाहिए। इसी प्रकार उन जीवों का (चार आलापकों के द्वारा) वनस्पतिकायिक-जीवों में भी ( उपपात करवाना चाहिए) ।
६. भन्ते! पर्याप्त - सूक्ष्म- पृथ्वीकायिक- जीव इस रत्नप्रभा - पृथ्वी के विषय में..... पृच्छा ?
इसी प्रकार पर्याप्त सूक्ष्म- पृथ्वीकायिक- जीव भी ( इस रत्नप्रभा - पृथ्वी में) पूर्व दिशा के चरमान्त में (मारणान्तिक) - समुद्घात करके (आयुष्य पूर्ण करके) इसी क्रम से इन बीस स्थानों में उपपात करवाना चाहिए। (पृथ्वीकाय, अप्काय, तेजस्काय, वायुकाय और वनस्पतिकाय–इन पांच के सूक्ष्म और बादर तथा प्रत्येक के पर्याप्तक और अपर्याप्तक- ये बीस भेद होते हैं) यावत् 'बादर - वनस्पतिकायिक के पर्याप्तक में' तक भी वक्तव्य है । इसी प्रकार अपर्याप्त - बादर - पृथ्वीकायिक- जीव का भी बीस स्थानों में उपपात करवाना चाहिए । इसी प्रकार पर्याप्त - बादर - पृथ्वीकायिक- जीव का भी बीस स्थानों में उपपात करवाना चाहिए। इसी प्रकार अप्कायिक- जीव का भी चार गमकों में (इस रत्नप्रभा - पृथ्वी में) पूर्व दिशा के चरमान्त में ( मारणान्तिक) - समुद्घात से समवहत होता है, समवहत होकर........ इसी प्रकार पूर्ववत् वक्तव्यता के द्वारा इन्हीं बीस स्थानों में उपपात करवाना चाहिए। सूक्ष्मतेजस्कायिक- जीव के भी अपर्याप्तक और पर्याप्तक ये दो भेद बतलाये । इन्हीं बीस स्थानों में इनका उपपात करवाना चाहिए ।
७. भन्ते ! अपर्याप्त - बादर - तेजस्कायिक जीव मनुष्य-क्षेत्र में समवहत होता है, समवहत होकर जो भव्य (अपर्याप्त सूक्ष्म- पृथ्वीकायिक- जीव के रूप में उत्पन्न होने की योग्यता प्राप्त) इस रत्नप्रभा-पृथ्वी में पश्चिम दिशा के चरमान्त में अपर्याप्त सूक्ष्म-पृथ्वीकायिक- जीव के रूप में उपपन्न होने योग्य है, भन्ते ! वह कितने समय वाली विग्रह-गति (अन्तराल - गति) के द्वारा उपपन्न होता है ? शेष उसी प्रकार वक्तव्य है यावत् 'यह इस अपेक्षा से कहा जा रहा है' तक। इसी प्रकार चार प्रकार के पृथ्वीकायिक-जीवों का भी उपपात करवाना चाहिए, इसी प्रकार चार प्रकार के अप्कायिक- जीवों का भी (उपपात करवाना चाहिए), सूक्ष्म-तेजस्कायिक- जीवों के अपर्याप्तक और पर्याप्तक में इसी प्रकार उपपात करवाना चाहिए ।
८. भन्ते ! अपर्याप्त - बादर - तेजस्कायिक- जीव मनुष्य-क्षेत्र में समवहत होता है समवहत होकर जो भव (अपर्याप्त बाद तेजस्कायिक- जीव के रूप में उत्पन्न होने की योग्यता प्राप्त) (मनुष्य-क्षेत्र में अपर्याप्त - बादर - तेजस्कायिक- जीव के रूप में उत्पन्न होने योग्य है), भन्ते ! वह कितने समय वाली विग्रह - गति (अन्तराल - गति) के द्वारा ... ? शेष उसी प्रकार वक्तव्य है । इसी प्रकार पर्याप्त - बादर - तेजस्कायिक- जीव के रूप में भी उपपात करवाना चाहिए। वायुकायिक- तथा वनस्पतिकायिक- जीव के रूप में जैसा पृथ्वीकायिक जीव के रूप उपपात करवाया गया वैसा ही चार भेद से उपपात करवाना चाहिए । इसी प्रकार पर्याप्त- बादर-तेजस्कायिक- जीव का भी समय क्षेत्र में मारणान्तिक - समुद्घात के द्वारा समवहत होकर इन्हीं बीस स्थानों में उपपात करवाना चाहिए। जैसी अपर्याप्त-तेजस्कायिक-जीव की उपपात बतलाई गई वैसी ही सर्वत्र बादर - तेजस्कायिक- जीवों के अपर्याप्तक और पर्याप्तक में समय-क्षेत्र में उपपात करवाना चाहिए, मारणान्तिक- समुद्घात करवाना चाहिए ।
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