Book Title: Bhagwati Sutra Part 02
Author(s): Kanakprabhashreeji, Mahendrakumar Muni, Dhananjaykumar Muni
Publisher: Jain Vishva Bharati
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भगवती सूत्र
श. २६ : उ. १,२ : सू. २६-३०
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सम्यग् - मिथ्या-दृष्टि में तृतीय और चतुर्थ भंग वक्तव्य है । असुरकुमार में पूर्ववत्, केवल इतना विशेष है - कृष्ण - लेश्य असुरकुमार में चारों भंग वक्तव्य है, शेष की नैरयिक की भांति वक्तव्यता । इसी प्रकार यावत् स्तनिकुमारों की वक्तव्यता । पृथ्वीकायिक में सर्वत्र ही चारों भंग की वक्तव्यता, इतना विशेष है – कृष्णपाक्षिक पृथ्वीकायिक में प्रथम और तृतीय भंग की
वक्तव्यता ।
२७. तेजोलेश्य - पृथ्वीकायिक- जीव
..? पृच्छा। (भ. २६ / २६) गौतम ! तेजोलेश्य - पृथ्वीकायिक- जीव ने आयुष्य-कर्म का बन्ध किया था, नहीं कर रहा है, करेगा। (यहां केवल तीसरा भंग है ।) शेष सभी में सर्वत्र चारों भंग वक्तव्य है । इसी प्रकार अप्कायिक और वनस्पतिकायिकों की भी अविकल रूप से वक्तव्यता । तैजस्कायिक- और वायुकायिक- जीवों में सर्वत्र प्रथम और तृतीय भंग वक्तव्य है । द्वीन्द्रिय-, त्रीन्द्रिय और चतुरिन्द्रिय-जीवों के भी सर्वत्र ही प्रथम और तृतीय भंग वक्तव्य है, इतना विशेष है - सम्यग् - - दृष्टि, ज्ञानी, आभिनिबोधिक ज्ञानी और श्रुत - ज्ञानी द्वीन्द्रिय-, त्रीन्द्रिय - और चतुरिन्द्रिय- जीव में तृतीय भंग वक्तव्य है । पंचेन्द्रिय तिर्यग्योनिक-जीवों में कृष्ण - पाक्षिक-पद में प्रथम और तृतीय भंग वक्तव्य है। पंचेन्द्रिय तिर्यग्योनिक - जीवों के सम्यग् - मिथ्या दृष्टि पद में तृतीय और चतुर्थ भंग वक्तव्य है । पञ्चेन्द्रिय तिर्यग्योनिक-जीव के सम्यग् दृष्टि, ज्ञानी, आभिनिबोधिक ज्ञानी, श्रुत- ज्ञानी और अवधि - ज्ञानी इन पांचों पदों में द्वितीय भंग को छोड़ कर शेष तीन भंगों की वक्तव्यता । पंचेन्द्रिय तिर्यग्योनिक-जीव के शेष पदों में चारों भंग वक्तव्य है ।
मनुष्य की जीवों की भांति वक्तव्यता । (भ. २६ / २२ - २५), इतना विशेष है - मनुष्य के सम्यग्दृष्टि, औधिक ज्ञानी, आभिनिबोधिक ज्ञानी, श्रुत-ज्ञानी और अवधि - ज्ञानी इन (पांच पदों) में द्वितीय भंग को छोड़कर शेष तीन भंग की वक्तव्यता । मनुष्य के शेष पदों की जीव की भांति वक्तव्यता । वानमन्तर, ज्योतिषिक- और वैमानिक देवों के आयुष्य-बन्ध के विषय में असुरकुमार की भांति वक्तव्यता । नाम कर्म, गोत्र-कर्म और अन्तराय - कर्म - इन तीनों के बन्ध की ज्ञानावरणीय कर्म-बन्ध की भांति वक्तव्यता ।
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२८. भन्ते ! वह ऐसा ही है । भन्ते ! वह ऐसा ही है। इस प्रकार भगवान् गौतम यावत् संयम और तप से अपने आपको भावित करते हुए विहरण कर रहे है ।
दूसरा उद्देश
विशेषित - नैरयिक- आदि जीवों का बन्धाबन्ध - पद
२९. भन्ते ! अनन्तर - उपपन्न (प्रथम समय के) - नैरयिक- जीव क्या पाप कर्म का बन्ध करता था.......? पूर्ववत्....पृच्छा। (भ. २६ / १ )
गौतम ! अनन्तर - उपपन्न कोई नैरयिक पाप कर्म का बन्ध करता था..... प्रथम, द्वितीय भंग की वक्तव्यता ।
३०. भन्ते ! सलेश्य - अनन्तर - उपपन्न - नैरयिक-जीव क्या पाप कर्म का बन्ध करता था....? पृच्छा । (भ. २६ / १)
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