Book Title: Bhagwati Sutra Part 02
Author(s): Kanakprabhashreeji, Mahendrakumar Muni, Dhananjaykumar Muni
Publisher: Jain Vishva Bharati
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भगवती सूत्र
६. चक्रवाला - वलय की आकृति वाली । ७. अर्द्धचक्रवाला - अर्द्धवलय की
श. २५ : उ. ३ : सू. ९१-९९
होता है । आकृति वाली ।
अनुश्रेणी - विश्रेणी - गति का पद
९२. भन्ते ! परमाणु- पुद्गलों की गति क्या अनुश्रेणी में होती है ? विश्रेणी में होती है ? गौतम ! परमाणु - पुद्गलों की गति अनुश्रेणी में होती है, विश्रेणी में नहीं होती ।
९३. भन्ते ! द्वि- प्रदेशी स्कन्धों की गति क्या अनुश्रेणी में होती है ? विश्रेणी में होती है ? पूर्ववत् । इसी प्रकार यावत् अनन्त प्रदेशी स्कन्धों की वक्तव्यता ।
९४. भन्ते ! नैरयिकों की गति क्या अनुश्रेणी में होती है ? या विश्रेणी में होती है ? पूर्ववत् । इसी प्रकार यावत् वैमानिकों की वक्तव्यता ।
निरयावास - पद
९५. भन्ते ! इस रत्नप्रभा - पृथ्वी के कितने लाख नरकावास प्रज्ञप्त हैं ?
गौतम ! रत्नप्रभा - पृथ्वी के तीस लाख नरकावास प्रज्ञप्त हैं, इसी प्रकार भगवती के प्रथम शतक के पांचवें उद्देशक की भांति यावत् अनुत्तरविमान की वक्तव्यता ।
गणिपिटक -पद
९६. भन्ते! गणिपिटक कितने प्रकार का प्रज्ञप्त है ?
गौतम ! गणिपिटक द्वादशांग - बारह अंग वाला प्रज्ञप्त है, जैसे- आचार यावत् दृष्टिवाद ।
९७. वह आचार क्या है ?
आचार में श्रमण निर्ग्रन्थ के
आचार- गोचर - विनय - वैनयिक शिक्षा भाषा-अभाषा-चरण- करण-यात्रा- मात्रा - वृत्ति का आख्यान किया गया है, इसी प्रकार अंगों की प्ररूपणा नंदी सूत्र की भांति वक्तव्य है यावत् - अनुयोग की विधि इस प्रकार है । प्रथम बार में सूत्र और अर्थ का बोध, दूसरी बार में निर्युक्ति सहित सूत्र और अर्थ का बोध, तीसरी बार में समग्रता का बोध ।
अल्पबहुत्व-पद
९८. भन्ते ! नैरयिक, यावत् देवों और सिद्धों इन पांच गतियों के समास (वर्ग)
अल्प, बहुत, तुल्य या विशेषाधिक हैं ?
कौन कितने
गौतम ! इन पांच गतियों के समास (वर्ग) अल्पबहुत्व की पण्णवणा के तीसरे पद 'बहुवक्तव्यता' (सू. ३८) की वक्तव्यता । आठ गतियों (नरक, तिर्यञ्च, तिर्यज्वनी, मनुष्य, मनुष्यनी, देव, देवी और सिद्धगति) के समास (वर्ग) के बहुत्व की पण्णवणा के तीसरे पद 'बहुवक्तव्यता' (सू. ३९) की वक्तव्यता।
९९. भन्ते ! स- इन्द्रिय, एकेन्द्रिय यावत् चतुरिन्द्रिय और अनिन्द्रिय जीवों में कौन किनसे अल्प, बहुत, तुल्य या विशेषाधिक हैं? यह भी पण्णवणा के तीसरे पद 'बहुवक्तव्यता' (सू. ३९) की भांति तथा 'औधिकपद' भी उसी प्रकार वक्तव्य है । सकायिक जीवों का
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