Book Title: Bhagwati Sutra Part 02
Author(s): Kanakprabhashreeji, Mahendrakumar Muni, Dhananjaykumar Muni
Publisher: Jain Vishva Bharati
View full book text
________________
भगवती सूत्र
श. २५ : उ. ७ : सू. ५४९-५५२ यथाख्यात-संयत पूर्व प्रतिपद्यमान की अपेक्षा जघन्यतः पृथक्त्व-कोटि (दो करोड़ से नौ करोड़ तक) होते हैं, उत्कृष्टतः भी पृथक्त्व-कोटि होते हैं। अल्पबहुत्व-पद ५५०. भन्ते! इन सामायिक-, छेदोपस्थापनिक-, परिहारविशुद्धिक-, सूक्ष्मसम्पराय- और यथाख्यात-संयतों में कौन-किनसे अल्प? बहुत? तुल्य? अथवा विशेषाधिक हैं? । गौतम! सूक्ष्मसम्पराय-संयत सबसे अल्प हैं, परिहारविशुद्धिक-संयत इनसे संख्येय-गुणा हैं, यथाख्यात-संयत इनसे संख्येय-गुणा हैं, छेदोपस्थापनिक-संयत इनसे संख्येय-गुणा हैं, सामायिक-संयत इनसे संख्येय-गुणा हैं। संग्रहणी-गाथा
प्रतिषेवणा दोष, आलोचना, आलोचनार्ह, सामाचारी, प्रायश्चित्त और तप-अग्रिम सूत्रों में ये छह विषय प्रतिपादित है। प्रतिषेवणा-पद ५५१. भन्ते! प्रतिषेवणा कितने प्रकार की प्रज्ञप्त हैं? गौतम! प्रतिषेवणा दस प्रकार की प्रज्ञप्त हैं, जैसे-१. दर्प-प्रतिषेवणा-दर्प (उद्धतभाव) से किया जाने वाला प्राणातिपात आदि का आसेवन । २. प्रमाद-प्रतिषेवणा-कषाय, विकथा आदि से किया जाने वाला प्राणातिपात आदि का आसेवन। ३. अनाभोग-प्रतिषेवणा-विस्मृतिवश किया जाने वाला प्राणातिपात आदि का आसेवन। ४. आतुर-प्रतिषेवणा-भूख-प्यास और रोग से अभिभूत होकर किया जाने वाला प्राणातिपात आदि का आसेवन। ५. आपत्-प्रतिषेवणा-आपदा प्राप्त होने पर किया जाने वाला प्राणातिपात आदि का आसेवन। ६. संकीर्ण-प्रतिषेवणा-एषणीय आहार आदि को भी व्याकुलता-सहित लेने से होने वाला प्राणातिपात आदि का आसेवन । ७. सहसाकरण-प्रतिषेवणा-अकस्मात् होने वाला प्राणातिपात आदि का आसेवन। ८. भय-प्रतिषेवणा-भयवश होने वाला प्राणातिपात आदि का आसेवन। ९. प्रदोष-प्रतिषेवणा-क्रोध आदि कषाय से किया जाने वाला प्राणातिपात आदि का आसेवन । १०. विमर्श-प्रतिषेवणा-शिष्यों की परीक्षा के लिए किया जाने वाला प्राणातिपात आदि का आसेवन । आलोचना-पद ५५२. आलोचना के दस दोष प्रज्ञप्त हैं, जैसे१. आकम्प्य-सेवा आदि के द्वारा आलोचना देने वाले की आराधना कर आलोचना करना। २. अनुमान्य मैं दुर्बल हूं, मुझे थोड़ा प्रायश्चित्त देना इस प्रकार अनुनय कर आलोचना करना। ३. यदृष्ट-आचार्य आदि द्वारा जो दोष देखा गया है-उसी की आलोचना करना। ४. बादर-केवल बड़े दोषों की आलोचना करना। ५. सूक्ष्म केवल छोटे दोषों की आलोचना करना। ६. छन्न-आचार्य न सुन पाए वैसे आलोचना करना। ७. शब्दाकुल-जोर-जोर से बोलकर दूसरे अगीतार्थ साधु सुने वैसे आलोचना करना। ८. बहुजन–एक के पास आलोचना कर फिर उसी दोष की दूसरे के पास आलोचना करना।
८५३