Book Title: Bhagwati Sutra Part 02
Author(s): Kanakprabhashreeji, Mahendrakumar Muni, Dhananjaykumar Muni
Publisher: Jain Vishva Bharati
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श. २४ : उ. २० : सू. २४०-२४३
भगवती सूत्र है-संहनन के पुद्गल अनिष्ट, अकान्त यावत् परिणत होते हैं। अवगाहना दो प्रकार की प्रज्ञप्त है, जैसे-भवधारणीय-शरीर की अवगाहना-जीवन-पर्यन्त रहने वाले शरीर की अवगाहना और उत्तरवैक्रिय-शरीर की अवगाहना-पूर्ववैक्रिय-शरीर की अपेक्षा उत्तरकाल में निर्मित वैक्रिय-शरीर की अवगाहना। जो भवधारणीय-शरीर की अवगाहना है वह जघन्यतः अंगुल-का-असंख्यातवां-भाग, उत्कृष्टतः तीन-रत्नी-छह-अंगुल-अधिक-सात-धनुष्य, जो उत्तरवैक्रिय-शरीर की अवगाहना है, वह जघन्यतः अंगुल-का-संख्यातवां-भाग, उत्कृष्टतः ढाई-रत्नी-अधिक-पन्द्रह-धनुष्य। २४१. भन्ते! उन जीवों के शरीर किस संस्थान वाले प्रज्ञप्त हैं? गौतम! शरीर के दो प्रकार प्रज्ञप्त हैं, जैसे-१. भवधारणीय-शरीर २. उत्तरवैक्रिय-शरीर । जो भवधारणीय-शरीर हैं वे हुंड-संस्थान वाले प्रज्ञप्त हैं। जो उत्तरवैक्रिय-शरीर हैं, वे भी हुंड-संस्थान वाले प्रज्ञप्त हैं। लेश्या एक कापोत-लेश्या प्रज्ञप्त है। समुद्घात चार। वे स्त्री-वेदक नहीं होते, पुरुष-वेदक नहीं होते, नपुंसक-वेदक होते हैं। स्थिति जघन्यतः दस-हजार-वर्ष, उत्कृष्टतः एक सागरोपम। इसी प्रकार अनुबन्ध भी। शेष पूर्ववत्। भव की अपेक्षा जघन्यतः दो भव-ग्रहण, उत्कृष्टतः आठ भव-ग्रहण। काल की अपेक्षा जघन्यतः अन्तर्मुहूर्त-अधिक-दस-हजार-वर्ष, उत्कृष्टतः चार-कोटि-पूर्व-अधिक-चार-सागरोपम-इतने काल तक रहते हैं, इतने काल तक गति-आगति करते हैं। (दूसरा गमक : जघन्य और औधिक) २४२. वही जघन्य काल की स्थिति वाले में उत्पन्न रत्नप्रभा-पृथ्वी का नैरयिक जघन्यतः
अन्तर्मुहूर्त की स्थिति वाले, उत्कृष्टतः भी अन्तर्मुहूर्त की स्थिति वाले पंचेन्द्रिय-तिर्यग्योनिक-जीवों में उत्पन्न होता है (भ. २४/२४०,२४१)। केवल इतना विशेष है-काल की अपेक्षा जघन्यतः पूर्ववत्। उत्कृष्टतः चार-अन्तर्मुहूर्त-अधिक-चार-सागरोपम–इतने काल तक रहता है, इतने काल तक गति-आगति करता है। (तीसरे से नवें गमक तक)
इसी प्रकार शेष सात गमक वक्तव्य हैं, नैरयिक-उद्देशक की भांति संज्ञी-पञ्चेन्द्रिय-जीवों में उत्पन्न होने वाले जीवों के। नैरयिकों के तीन मध्यम गमक (चौथे, पांचवें और छट्टे)
और तीन अन्तिम गमक (सातवें, आठवें और नवें) में स्थिति का नानात्व होता है। शेष पूर्ववत्। सर्वत्र स्थिति और कायसंवेध ज्ञातव्य है। पैंतालीसवां आलापक : तिर्यञ्च-पंचेन्द्रिय-जीवों में दूसरी से छट्ठी नरक के नैरयिकों का
उपपात-आदि २४३. भन्ते! शर्कराप्रभा-पृथ्वी का नैरयिक, जो पञ्चेन्द्रिय-तिर्यग्योनिक-जीवों में उत्पन्न होने योग्य है? इसी प्रकार जैसे रत्नप्रभा-पृथ्वी के नौ गमक वैसे ही शर्कराप्रभा-पृथ्वी के भी नव गमक वक्तव्य हैं (भ. २४/२३९-२४९), केवल इतना विशेष है-शरीरावगाहनाअवगाहन-संस्थान की भांति (पण्णवणा, पद २१) सात-धनुष्य-तीन-हाथ-(रत्नी)-छह-अंगुल, उत्कृष्ट अवगाहना प्रथम नरक में है इससे आगे दुगुनी-दुगुनी अवगाहना भवधारणीय
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