Book Title: Bhagwati Sutra Part 02
Author(s): Kanakprabhashreeji, Mahendrakumar Muni, Dhananjaykumar Muni
Publisher: Jain Vishva Bharati
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भगवती सूत्र
श. २४ : उ. २१ : सू. ३००-३०३
विशेष है – इनक परिमाण और अध्यवसान में नानात्व ज्ञातव्य, जैसा पृथ्वीकायिक- उद्देशक (भ. २४/२९९) में निर्दिष्ट है। शेष अविकल रूप से वक्तव्य है (भ. २४ / २६१-२८२)। तिरेसठवां आलापक : मनुष्यों में असुरकुमार देवों का उपपात - आदि
३०१. यदि देवों से मनुष्यों में उत्पन्न होते हैं तो क्या भवनपति देवों से उत्पन्न होते हैं? वाणमन्तर- देवों से उत्पन्न होते हैं? ज्योतिष्क- देवों से उत्पन्न होते हैं? वैमानिक -देवों से उत्पन्न होते हैं ?
गौतम! भवनपति-देवों से भी उत्पन्न होते हैं यावत् वैमानिक - देवों से भी उत्पन्न होते हैं। ३०२. भन्ते! यदि भवनपति - देवों से उत्पन्न होते हैं तो - क्या असुरकुमार - भवनपति देवों से उत्पन्न होते हैं यावत् स्तनितकुमार - भवनपति - देवों से उत्पन्न होते हैं ?
गौतम ! असुरकुमार-भवनपति - देवों से उत्पन्न होते हैं यावत् स्तनितकुमार - भवनपति देवों से उत्पन्न होते हैं ।
३०३. भन्ते ! असुरकुमार देव, जो मनुष्य में उत्पन्न होने योग्य है, भन्ते ! वह कितने काल की स्थिति वाले मनुष्यों में उत्पन्न होगा ?
गौतम! जघन्यतः पृथक्त्व ( दो से नौ) - मास की स्थिति वाले, उत्कृष्टतः कोटि-पूर्व आयुष्य वाले मनुष्यों में उत्पन्न होता है । इसी प्रकार पञ्चेन्द्रिय तिर्यग्योनिक उद्देशक में जो वक्तव्यता है वही यहां भी वक्तव्य है । केवल इतना विशेष है - जैसे पंचेन्द्रिय तिर्यग्योनिक-जीवों में जघन्यतः अन्तर्मुहूर्त्त की स्थिति वाले वैसे यहां जघन्यतः पृथक्त्व (दो से नौ) - मास की स्थिति वाले मनुष्यों में उत्पन्न होता है । परिमाण - जघन्यतः एक अथवा दो अथवा तीन, उत्कृष्टतः संख्येय जीव उत्पन्न होते हैं। शेष पूर्ववत् जैसे – पञ्चेन्द्रिय तिर्यग्योनिक-जीवों में असुरकुमार की उत्पत्ति के विषय में बतलाया गया (भ. २४/२८५) । चौसठवां आलापक: मनुष्य में नवनिकाय देवों से लेकर दूसरे देवलोक तक देवों का उपपात-आदि
इसी प्रकार (भ. २४ । २८५ - २९३) यावत् ईशान देव तक ( के रूप में उत्पन्न होने के विषय में बतलाना चाहिए) जैसे वहां ये नानात्व (जघन्यतः स्थिति, परिमाण का नानात्व बतलाये गये थे, वैसे यहां पर भी बतलाने चाहिए ) ।
सनत्कुमार आदि यावत् सहस्रार तक पञ्चेन्द्रिय तिर्यग्योनिक- उद्देशक (भ. २४/२९३) की भांति बतलाना चाहिए, केवल इतना विशेष है - परिमाण - जघन्यतः एक अथवा दो अथवा तीन, उत्कृष्टतः संख्येय उत्पन्न होते हैं । उपपात - जघन्यतः पृथक्त्व वर्ष की स्थिति वाले मनुष्यों में, उत्कृष्टतः कोटि-पूर्व आयुष्य वाले मनुष्यों में उत्पन्न होते हैं। शेष (संहनन आदि) पूर्ववत् । कायसंवेध - पृथक्त्व - वर्ष के स्थान पर कोटि- पूर्व करणीय है । (देवों की जघन्य और उत्कृष्ट स्थिति के आधार पर बतलानी चाहिए ।
पैंसठवां आलापक: मनुष्यों में तीसरे देवलोक से आठवें देवलोक तक के देवों का उपपात-आदि
मनुष्यों में सनत्कुमार देव का कायसंवेध प्रथम, द्वितीय, चतुर्थ, पञ्चम, गमक में जघन्यतः
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