Book Title: Bhagwati Sutra Part 02
Author(s): Kanakprabhashreeji, Mahendrakumar Muni, Dhananjaykumar Muni
Publisher: Jain Vishva Bharati
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भगवती सूत्र
श. २४ : उ. २१ : सू. ३०३-३०५ पृथक्त्व-वर्ष-अधिक-दो-सागरोपम तथा तीसरे और छटे गमक में पूर्व-कोटि-अधिक-सात-सागरोपम, सातवें और आठवें गमक में पृथक्त्व-वर्ष-अधिक सात-सागरोपम, नवें गमक में कोटि-पूर्व-अधिक-सात-सागरोपम, उत्कृष्टतः सनत्कुमार की उत्कृष्ट स्थिति को चतुर्गुणित करने पर अट्ठाईस सागरोपम होती है, तथा मनुष्य के उत्कृष्ट काल का चतुर्गुणित करने पर पहले, तीसरे, चौथे, छटे, सातवें और नवमें गमक में चार कोटि-पूर्व, दूसरे, पांचवें
और आठवें गमक में चार-पृथक्त्व-वर्ष-और-अधिक जोड़ना चाहिए, इतना काल लगता है इतने काल तक गति-आगति करता है।) माहेन्द्र-देवलोक (देवों की मनुष्य के रूप में उत्पत्ति का कायसंवेध) उससे (सनत्कुमार की स्थिति से) कुछ अधिक होने से कायसंवेध के काल में जघन्य काल में दो सागरोपम से कुछ अधिक और सात सागरोपम से कुछ अधिक सहित पूर्ववत् बतलाना चाहिए तथा उत्कृष्ट काल में चतुर्गुणित करने पर अट्ठाईस सागरोपम से कुछ अधिक अथवा आठ-सागरोपम-से-कुछ-अधिक-सहित पूर्ववत् बतलाना चाहिए, ब्रह्मदेव-लोक के (देवों की मनुष्य के रूप में उत्पत्ति का कायसंवेध) जघन्य काल में सात-सागरोपम-अथवा-दस-सागरोपम-सहित पूर्ववत बतलाना चाहिए तथा उत्कृष्ट काल में चालीस-सागरोपम-(अथवा अट्ठाईस- सागरोपम)-सहित पूर्ववत् बतलाना चाहिए, लान्तक-देवलोक के (देवों की मनष्य के रूप में उत्पत्ति का कायसंवेध) (जघन्य काल में दस-सागरोपम अथवा चौदह-सागरोपम सहित पूर्ववत् बतलाना चाहिए तथा उत्कृष्ट काल में) छप्पन सागरोपम-(अथवा-चालीस-सागरोपम-सहित पूर्ववत् बतलाना चाहिए), महाशुक्र-देवलोक के (देवों की मनुष्य के रूप में उत्पत्ति का कायसंवेध) (जघन्य काल चौदह-सागरोपम-अथवा-सत्रह-सागरोपम-सहित पूर्ववत् बतलाना चाहिए, उत्कृष्ट काल) अड़सठ-सागरोपम-(अथवा छप्पन-सागरोपम-सहित पूर्ववत् बतलाना चाहिए), सहस्रार-देवलोक के (देवों की मनुष्य के रूप में उत्पत्ति का कायसंवेध जघन्यकाल में सत्रहअथवा अठारह-सागरोपम-सहित पूर्ववत् बतलाना चाहिए, उत्कृष्ट काल) बहत्तर-सागरोपम-(अथवा-अड़सठ-सागरोपम-सहित पूर्ववत् बतलाना चाहिए), यह उत्कृष्टतः स्थिति बतलाई गई। जघन्य स्थिति भी चतुर्गुणित करके वक्तव्य है। इसी प्रकार यावत् ईशानदेव की
वक्तव्यता। छासठवां आलापक : मनुष्यों में नौवें देवलोक के देवों का उपपात-आदि ३०४. भन्ते! आनत-देव, मनुष्य में उत्पन्न होने योग्य है, भन्ते! वह कितने काल की स्थिति वाले मनुष्यों में उत्पन्न होता है? गौतम! जघन्यतः पृथक्त्व (दो से नौ)-वर्ष की स्थिति वाले, उत्कृष्टतः कोटि-पूर्व की स्थिति वाले मनुष्यों में उत्पन्न होता है। ३०५. भन्ते! वे जीव एक समय में कितने उत्पन्न होते हैं? इसी प्रकार सहसार-देवों की
भांति (भ. २४/३०३), केवल इतना विशेष है-अवगाहना, स्थिति और अनुबन्ध यथोचित वक्तव्य हैं। शेष पूर्ववत् बतलाना चाहिए। (आनत आदि चार देवों की अवगाहना-भवधारणीय उत्कृष्टतः तीन हाथ बतलानी चाहिए, आनत-देवलोक की स्थिति जघन्यतः अठारह सागरोपम, उत्कृष्टतः उन्नीस सागरोपम बतलानी चाहिए।)
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