Book Title: Bhagwati Sutra Part 02
Author(s): Kanakprabhashreeji, Mahendrakumar Muni, Dhananjaykumar Muni
Publisher: Jain Vishva Bharati
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भगवती सूत्र
श. २४ : उ. १५-१८ : सू. २२७-२३३
२२७. भन्ते ! वह ऐसा ही है । भन्ते ! वह ऐसा ही है ।
सोलहवां उद्देशक
चालीसवां आलापक : वनस्पतिकायिक-जीवों में जीवों का उपपात-आदि २२८. भन्ते ! वनस्पतिकायिक-जीव कहां से उत्पन्न होते हैं ? इसी प्रकार पृथ्वीकायिक-जीवों के उद्देशक की भांति वक्तव्यता, केवल इतना विशेष है जब वनस्पतिकायिक जीव वनस्पतिकायिकों में उत्पन्न होता है तब प्रथम, द्वितीय, चतुर्थ और पञ्चम गमकों में परिमाण (इस प्रकार बतलाना चाहिए ) - प्रतिसमय विरह - रहित ( लगातार ) अनन्त जीव उत्पन्न होते हैं । भव की अपेक्षा जघन्यतः दो भव-ग्रहण, उत्कृष्टतः अनन्त भव-ग्रहण । काल की अपेक्षा जघन्यतः दो अन्तर्मुहूर्त्त, उत्कृष्टतः अनन्त काल - इतने काल तक रहता है, इतने काल तक गति - आगति करता है। शेष पांच गमकों (तीसरे, छट्टे, सातवें, आठवें और नौवें) में उत्कृष्टतः आठ भव-ग्रहण (भ. २४/१७०), केवल इतना विशेष है-स्थिति और कायसंवेध जानना चाहिए।
२२९. भन्ते ! वह ऐसा ही है । भन्ते ! वह ऐसा ही है ।
सत्रहवां उद्देशक
इकतालीसवां आलापक : द्वीन्द्रिय-जीवों में जीवों का उपपात - आदि
२३०. भन्ते ! द्वीन्द्रिय-जीव कहां से उत्पन्न होते हैं ? यावत् (पण्णवणा, ६ । ८२-८६) २३१. भन्ते! पृथ्वीकायिक- जीव, जो द्वीन्द्रिय-जीवों में उत्पन्न होने योग्य है, भन्ते ! वह कितने काल की स्थिति वाले द्वीन्द्रिय-जीवों में उत्पन्न होता है ? पृथ्वीकायिक- जीव के पृथ्वीकायिक- जीवों में उत्पन्न होने पर जो लब्धि ( प्राप्ति ) ( भ. २४/१६६, १६७) बतलाई गई, वही वक्तव्य है यावत् काल की अपेक्षा जघन्यतः दो अन्तर्मुहूर्त्त उत्कृष्टतः संख्येय भव - ग्रहण - इतने काल तक रहता है, इतने काल तक गति - आगति करता है। इसी प्रकार उन्हीं चार गमकों में (प्रथम, द्वितीय, चतुर्थ और पंचम ) वही कायसंवेध ( जघन्यतः दो, उत्कृष्टतः संख्येय भव- ग्रहण), शेष पांच गमकों (तीसरे, छट्टे, सातवें, आठवें, नवें) में उसी प्रकार आठ भव-ग्रहण ( जघन्यतः दो भव, उत्कृष्टतः आठ भव) इसी प्रकार यावत् चतुरिन्द्रिय तक चार गमकों में संख्येय भव, पांच गमकों में आठ भव । पञ्चेन्द्रिय- तिर्यग्योनिक-जीव तथा मनुष्यों से द्वीन्द्रिय में उत्पन्न होने पर उसी प्रकार आठ भव (नौ ही गमकों में)। देव द्वीन्द्रिय में उत्पन्न नहीं होते। स्थिति और कायसंवेध जानना चाहिए । २३२. भन्ते ! वह ऐसा ही है । भन्ते ! वह ऐसा ही है ।
अट्ठारहवां उद्देशक
बयालीसवां आलापक : त्रीन्द्रिय-जीवों में जीवों का उपपात-आदि
२३३.भन्ते! त्रीन्द्रिय-जीव कहां से उत्पन्न होते हैं ? इसी प्रकार जैसे द्वीन्द्रिय-जीवों के उद्देशक की भांति वक्तव्यता, केवल इतना विशेष है -स्थिति और कायसंवेध जानना चाहिए। तेजस्कायिक-जीव तृतीय गमक के साथ कायसंवेध इस प्रकार वक्तव्य है- उत्कृष्टतः दो
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