Book Title: Bhagwati Sutra Part 02
Author(s): Kanakprabhashreeji, Mahendrakumar Muni, Dhananjaykumar Muni
Publisher: Jain Vishva Bharati
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श. २४ : उ. १ : सू. २०-२७
भगवती सूत्र गौतम! तोन समुद्घात प्रज्ञप्त हैं, जैसे-वेदना-समुद्घात, कषाय-समुद्घात और मारणान्तिक-समद्घात। १५. वेदक-द्वार २१. भन्ते! वे जीव क्या सात का वेदन करने वाले होते हैं? असात का वेदन करने वाले होते हैं?
गौतम ! सात का वेदन करने वाले भी होते हैं, असात का वेदन करने वाले भी होते हैं। १६. वेद-द्वार २२. भन्ते! वे जीव क्या स्त्री-वेद वाले होते हैं? पुरुष-वेद वाले होते हैं? नपुंसक-वेद वाले होते हैं?
गौतम! स्त्री-वेद वाले नहीं होते, पुरुष-वेद वाले नहीं होते, नपुंसक-वेद वाले होते हैं । १७. स्थिति-द्वार २३. भन्ते! उन जीवों की कितनी काल की स्थिति प्रज्ञप्त हैं?
गौतम! जघन्यतः अन्तर्मुहूर्त, उत्कृष्टतः कोटि-पूर्व । १८. अध्यवसाय-द्वार २४. भन्ते! उन जीवों के कितने अध्यवसान प्रज्ञप्त हैं?
गौतम! असंख्येय अध्यवसान प्रज्ञप्त हैं। २५. भन्ते! वे जीव क्या प्रशस्त अध्यवसान वाले होते हैं? अप्रशस्त अध्यवसान वाले होते
गौतम! प्रशस्त अध्यवसान वाले भी होते हैं, अप्रशस्त अध्यवसान वाले भी होते हैं। १९. अनुबन्ध-द्वार २६. भन्ते! वह (पर्याप्तक-असंज्ञी-पंचेन्द्रिय-तिर्यग्योनिक-जीव) पर्याप्तक-असंज्ञी-पंचेन्द्रिय-तिर्यग्योनिक-रूप में काल की दृष्टि से कितने समय तक रहता है? गौतम! जघन्यतः अन्तर्मुहूर्त, उत्कृष्टतः कोटि-पूर्व। (यह अनुबंध-विवक्षित पर्याय का
अव्यवच्छिन्न रूप में अवस्थान है।) २०. कायसंवेध-द्वार २७. भन्ते! वह पर्याप्तक-असंज्ञी-पंचेन्द्रिय-तिर्यग्योनिक-जीव रत्नप्रभा-पृथ्वी में नैरयिक होकर पुनः पर्याप्तक असंज्ञी-पंचेन्द्रिय-तिर्यग्योनिक जीव के रूप में उत्पन्न होता है वह कितने काल तक रहता है? कितने काल तक वह गति-आगति करता है? गौतम! भव की अपेक्षा वह दो भव ग्रहण करता है-एक भव असंज्ञी-पंचेन्द्रिय-तिर्यञ्च का और दूसरा भव नारक का। काल की अपेक्षा जघन्यतः अंतर्मुहूर्त-अधिक-दस-हजार-वर्ष, उत्कृष्टतः कोटि-पूर्व-अधिक-पल्योपम-का-असंख्यातवां-भाग-इतने काल तक रहता है, इतने काल तक गति-आगति करता है।
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