Book Title: Bhagwati Sutra Part 02
Author(s): Kanakprabhashreeji, Mahendrakumar Muni, Dhananjaykumar Muni
Publisher: Jain Vishva Bharati
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श. २४ : उ. १ : सू. १०३-१०६
भगवती सूत्र (आठवां गमक : उत्कृष्ट और जघन्य) १०३. वही (संख्यात वर्ष की आयु वाला पर्याप्त-संज्ञी-पञ्चेन्द्रिय-मनुष्य) जघन्य काल की स्थिति वाले नैरयिक के रूप में उत्पन्न होता है, वही सप्तम गमक की भांति वक्तव्यता, केवल इतना विशेष है-काल की अपेक्षा जघन्यतः दस-हजार-वर्ष-अधिक-कोटि-पूर्व, उत्कृष्टतः चलीस-हजार-वर्ष-अधिक-चार-कोटि-पूर्व–इतने काल तक रहता है, इतने काल तक गत-आगति करता है। (नवां गमक : उत्कृष्ट और उत्कृष्ट) १०४. वही (संख्यात वर्ष की आयु वाला पर्याप्त-संज्ञी-पञ्चेन्द्रिय-मनुष्य) उत्कृष्ट काल की स्थिति वाले नैरयिक के रूप में उत्पन्न होता है, वही सप्तम गमक की भांति वक्तव्यता, केवल इतना विशेष है-काल की अपेक्षा जघन्यतः कोटि-पूर्व-अधिक-एक-सागरोपम, उत्कृष्टतः चार-पूर्व-कोटि-अधिक-चार-सागरोपम–इतने काल तक रहता है, इतने काल तक गति-आगति करता है। सातवां आलापक : दूसरी नरक में संख्यात वर्ष की आयु वाले पर्याप्त-संज्ञी-मनुष्यों का
उपपात-आदि (पहला गमक : औधिक और औधिक) १०५. भन्ते! संख्यात वर्ष की आयु वाला पर्याप्त-संज्ञी-मनुष्य, जो शर्कराप्रभा-पृथ्वी में नैरयिक के रूप में उपपन्न होने योग्य है, भन्ते! वह मनुष्य कितने काल की स्थिति वाले नैरयिक के रूप में उपपन्न होता है? गौतम! जघन्यतः एक सागरोपम की स्थिति वाले, उत्कृष्टतः तीन सागरोपम की स्थिति वाले नैरयिक के रूप में उपपन्न होता है। १०६. भन्ते! वे जीव एक समय में कितने उपपन्न होते हैं? वही रत्नप्रभा-पृथ्वी के प्रथम गमक की भांति वक्तव्यता, केवल इतना विशेष है-शरीरावगाहना-जघन्यतः पृथक्त्व (दो से नौ)-रत्नि (चौबीस अंगुल), उत्कृष्टतः पांच सौ धनुष। स्थिति जघन्यतः पृथक्त्व-वर्ष, उत्कृष्टतः कोटि-पूर्व। इसी प्रकार अनुबन्ध भी। शेष पूर्ववत् यावत् भवादेश तक। काल की अपेक्षा जघन्यतः पृथक्त्व-वर्ष-अधिक-एक-सागरोपम, उत्कृष्टतः चारकोटि-पूर्व अधिक बारह-सागरोपम–इतने काल तक रहता है, इतने काल तक गति-आगति
करता है। (दूसरा और तीसरा गमक : औधिक और जघन्य, औधिक और उत्कृष्ट)
इसी प्रकार औधिक तीनों गमकों में मनुष्य की प्राप्ति की वक्तव्यता, केवल इतना नानात्व है-काल की अपेक्षा नैरयिक स्थिति और कायसंवेध ज्ञातव्य है। टिप्पण
१. प्रथम गमक-ऊपरवत् (भ. २४/१०५) २. द्वितीय गमक-औधिक और जघन्य आयुष्य के संबंध में नारक की स्थिति जघन्य
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