Book Title: Bhagwati Sutra Part 02
Author(s): Kanakprabhashreeji, Mahendrakumar Muni, Dhananjaykumar Muni
Publisher: Jain Vishva Bharati
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भगवती सूत्र
श. २४ : उ. १२ : सू. १६३-१६८
बारहवां उद्देशक
पृथ्वीकाय का अधिकार
१६३. पृथ्वीकायिक- जीव कहां से तिर्यग्योनिकों, मनुष्यों और देवों से उत्पन्न होते हैं ?
गौतम ! पृथ्वीकायिक नैरयिकों से उत्पन्न नहीं होते, तिर्यग्योनिकों, मनुष्यों और देवों से उत्पन्न होते हैं।
उत्पन्न होते हैं - क्या नैरयिकों से उत्पन्न होते हैं ?
१६४. यदि तिर्यग्योनिकों से उत्पन्न होते हैं तो क्या - एकेन्द्रिय तिर्यग्योनिक-जीवों से उत्पन्न होते हैं ? इस प्रकार अवक्रांति पद (पण्णवण्णा, ६/८३) उपपात की भांति वक्तव्यता यावत्
१६५. यदि बादर - पृथ्वीकायिक- एकेन्द्रिय-तिर्यग्योनिक-जीवों से उत्पन्न होते हैं तो क्या- पर्याप्त बादर- पृथ्वीकायिक-एकेन्द्रिय-तिर्यग्योनिकों से उत्पन्न होते हैं? अपर्याप्त - बादर-पृथ्वीकायिक-एकेन्द्रिय - तिर्यग्योनिकों से उत्पन्न होते हैं ?
गौतम ! पर्याप्त - बादर - पृथ्वीकायिक- एकेन्द्रिय तिर्यग्योनिक-जीवों से उत्पन्न होते हैं, अपर्याप्त बादर - पृथ्वीकायिक- एकेन्द्रिय तिर्यग्योनिक-जीवों से भी उत्पन्न होते हैं ।
इक्कीसवां आलापक :
पृथ्वीकायिक में पृथ्वीकायिक-जीवों का उपपात - आदि
पहला गमक : औधिक और औधिक
१६६. भन्ते ! पृथ्वीकायिक- जीव, जो पृथ्वीकायिक- जीवों में उत्पन्न होने योग्य है भन्ते ! वह कितने काल की स्थिति वाले पृथ्वीकायिक- जीवों में उत्पन्न होता है ?
गौतम ! जघन्यतः अन्तर्मुहूर्त की स्थिति वाले, उत्कृष्टतः बाईस हजार वर्ष की स्थिति वाले पृथ्वीकायिक-जीवों में उत्पन्न होता है ।
१६७. भन्ते ! वे जीव एक समय में कितने उत्पन्न होते हैं.... पृच्छा।
गौतम ! वे जीव प्रत्येक समय में विरह - रहित असंख्यात उत्पन्न होते हैं । सेवार्त्त संहनन वाले होते हैं। शरीर की अवगाहना - जघन्यतः अंगुल - का - असंख्यातवां भाग, उत्कृष्टतः भी अंगुल -का- असंख्यातवां भाग । संस्थान - मसूर की दाल के संस्थान वाला । लेश्याएं चार, सम्यग् - दृष्टि नहीं होते, मिथ्या-दृष्टि होते हैं, सम्यग् - मिथ्या-दृष्टि नहीं होते। ज्ञानी नहीं होते, अज्ञानी होते हैं, नियमतः दो अज्ञान वाले होते हैं, मन योगी नहीं होते, वचन - योगी नहीं होते, काय-योगी होते हैं । उपयोग दोनों ही प्रकार के होते हैं। संज्ञाएं चार । कषाय
वेदना दो प्रकार की होती है ।
नपुंसक वेद वाले होते हैं ।
चार । इन्द्रिय- एक स्पर्शनेन्द्रिय प्रज्ञप्त है। समुद्घात तीन स्त्री - वेद वाले नहीं होते, पुरुष वेद वाले नहीं होते, स्थिति - जघन्यतः अन्तर्मुहूर्त्त, उत्कृष्टतः बाईस हजार वर्ष । प्रशस्त अध्यवसान वाले भी होते हैं, अप्रशस्त अध्यवसान वाले भी होते हैं । अनुबन्ध की स्थिति की भांति वक्तव्यता । १६८. भन्ते! पृथ्वीकायिक-जीव पुनः पृथ्वीकायिक में उत्पन्न होता है तो कितने काल तक रहता है कितने काल तक गति आगति करता है ?
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