Book Title: Bhagwati Sutra Part 02
Author(s): Kanakprabhashreeji, Mahendrakumar Muni, Dhananjaykumar Muni
Publisher: Jain Vishva Bharati
View full book text
________________
भगवती सूत्र
श. २४ : उ. १२ : सू. १९०-१९४ अट्ठाइसवां आलापक : पृथ्वीकायिक-जीवों में चतुरिन्द्रिय-जीवों का उपपात आदि १९०. यदि चतुरिन्द्रिय-जीवों से पृथ्वीकायिकों-जीवों में उत्पन्न होते हैं? इसी प्रकार
चतुरिन्द्रिय के भी नौ गमक वक्तव्य हैं, केवल इतना विशेष है-इन स्थानों में नानात्व (भिन्नत्व) ज्ञातव्य है। शरीरावगाहना-जघन्यतः अंगुल-का-असंख्यातवां-भाग, उत्कृष्टतः चार गव्यूत, स्थिति जघन्यतः अन्तर्मुहूर्त, उत्कृष्टतः छह महीना। इसी प्रकार अनुबन्ध भी। चार इन्द्रियां। शेष पूर्ववत्। यावत् नौवें गमक काल की अपेक्षा जघन्यतः छह-महीने-अधिक-बाईस-हजार-वर्ष, उत्कृष्टतः चौबीस-महीने-अधिक-अट्ठासी-हजार-वर्ष-इतने काल तक रहता है, इतने काल तक गति-आगति करता है। १९१. यदि पञ्चेन्द्रिय-तिर्यग्योनिक-जीवों से पथ्वीकायिक-जीवों में उत्पन्न होते हैं तो क्या-संज्ञी-पञ्चेन्द्रिय-तिर्यग्योनिक-जीवों से उत्पन्न होते हैं? अथवा असंज्ञी-पञ्चेन्द्रियतिर्यग्योनिक-जीवों से उत्पन्न होते हैं? गौतम! संज्ञी-पञ्चेन्द्रिय-तिर्यग्योनिक-जीवों से भी उत्पन्न होते हैं, असंज्ञी-पञ्चेन्द्रिय-तिर्यग्योनिकों से भी उत्पन्न होते हैं। १९२. यदि असंज्ञी-पञ्चेन्द्रिय-तिर्यग्योनिक-जीवों से पृथ्वीकायिक-जीवों में उत्पन्न होते हैं तो क्या जलचर-जीवों से उत्पन्न होते हैं यावत् क्या पर्याप्तक-जीवों से उत्पन्न होते हैं? अपर्याप्तक-जीवों से उत्पन्न होते हैं? (भ. २४/४,५)
गौतम! पर्याप्तक-जीवों से भी उत्पन्न होते हैं, अपर्याप्तक-जीवों से भी उत्पन्न होते हैं। उनतीसवां आलापक : पृथ्वीकायिक-जीवों में असंज्ञी-तिर्यंच-पंचेन्द्रिय-जीवों का
उपपात-आदि (पहला गमक : औधिक और औधिक) १९३. भन्ते! असंज्ञी-पञ्चेन्द्रिय-तिर्यग्योनिक-जीव जो पृथ्वीकायिक-जीवों में उत्पन्न होने योग्य है, भन्ते! वह जीव कितने काल की स्थिति वाले पृथ्वीकायिक-जीवों में उत्पन्न होता
गौतम! जघन्यतः अन्तर्मुहूर्त स्थिति वाले, उत्कृष्टतः बाईस-हजार-वर्ष की स्थिति वाले पृथ्वीकायिकों में उत्पन्न होता है। १९४. भन्ते! वे जीव एक समय में कितने उत्पन्न होते हैं? इसी प्रकार जैसे द्वीन्द्रिय के
औघिक गमक में लब्धि (प्राप्ति) वैसे ही वक्तव्य है (भ. २४/१८४), केवल इतना विशेष है-शरीरावगाहना-जघन्यतः अंगुल-का-असंख्यातवां-भाग, उत्कृष्टतः एक हजार योजन। इन्द्रियां पांच । स्थिति और अनुबन्ध जघन्यतः अन्तर्मुहूर्त, उत्कृष्टतः कोटि-पूर्व। शेष पूर्ववत् । भव की अपेक्षा जघन्यतः दो भव-ग्रहण, उत्कृष्टतः आठ भव-ग्रहण। काल की अपेक्षा जघन्यतः दो अन्तर्मुहर्त, उत्कृष्टतः अट्टासी-हजार-वर्ष-अधिक-चार-कोटि-पूर्व-इतने काल तक रहता है, इतने काल तक गति-आगति करता है। (दूसरे से नवें गमक तक) नौ ही गमकों में कायसंवेध-भव की अपेक्षा जघन्यतः दो भव-ग्रहण, उत्कृष्टतः
७४५