Book Title: Bhagwati Sutra Part 02
Author(s): Kanakprabhashreeji, Mahendrakumar Muni, Dhananjaykumar Muni
Publisher: Jain Vishva Bharati
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भगवती सूत्र
श. १५ : सू. १०१
७. वहां से अनंतर उद्वर्तन कर - ब्रह्मलोक नाम का कल्प प्रज्ञप्त है - वह पूर्व-पश्चिम में आयत और दक्षिण में विस्तीर्ण है, पण्णवणा के स्थान - पद ( २ / ५४ ) की भांति यावत् पांच अवतंसक प्रज्ञप्त हैं, जैसे- अशोकावतंसक यावत् प्रतिरूप - वहां देव-रूप में उपपन्न हुआ । वहां दस सागरोपम तक दिव्य भोगार्ह भोगों को यावत् च्यवन कर सातवीं बार संज्ञी गर्भ में जीव के रूप में उत्पन्न हुआ ।
वहां बहुप्रतिपूर्ण नौ मास तथा साढे सात रात दिन के बीत जाने पर सुकुमाल, भद्र, मृदुकुंडल के समान घुंघराले केश वाले कान के आभूषणों के समान चमकते हुए कपोल तथा देवकुमार सदृश प्रभा वाले पुत्र के रूप में जन्म लिया। काश्यप ! वह मैं हूं। आयुष्मन् काश्यप ! मैंने कौमारिक प्रव्रज्या व कौमारिक ब्रह्मचर्यवास के साथ अविद्धकर्ण के रूप में ही संख्यान (गणित) को प्राप्त किया । प्राप्त कर मैंने ये सात 'पोट्ट- परिहार' किए, जैसे
१. एणेयक २. मल्लराम ३. मंडित ४. रोह ५. भारद्वाज ६. गौतमपुत्र अर्जुनक ७. मंखलिपुत्र गोशाल ।
प्रथम पोट्ट परिहार में मैंने राजगृह नगर के बाहर मंडिककुक्षि चैत्य में कोण्डिकायन गौत्रीय उदायी के शरीर को छोड़ा, छोड़कर एणेयक के शरीर में अनुप्रवेश किया, अनुप्रवेश कर बाईस वर्ष तक प्रथम 'पोट्ट - परिहार' में रहा ।
दूसरे पोट्ट परिहार में मैंने उद्दण्डपुर नगर के बाहर चंद्रावतरण चैत्य में एणेयक के शरीर को छोड़ा, छोड़कर मल्लराम के शरीर में अनुप्रवेश किया, अनुप्रवेश कर इक्कीस वर्ष तक दूसरे 'पोट्ट- परिहार' में रहा।
तीसरे पोट्ट परिहार में मैंने चंपा नगरी के बाहर अंगमंदिर चैत्य में मल्लराम के शरीर को छोड़ा, छोड़कर मंडित के शरीर में अनुप्रवेश किया, अनुप्रवेश कर बीस वर्ष तक तीसरे 'पोट्ट- परिहार' में रहा ।
चौथे पोट्ट परिहार में मैंने वाराणसी नगरी के बाहर काममहावन चैत्य में मंडित के शरीर को छोड़ा, छोड़कर रोह के शरीर में अनुप्रवेश किया, अनुप्रवेश कर उन्नीस वर्ष तक चौथे 'पोट्ट- परिहार' में रहा ।
पांचवे पोट्ट परिहार में मैंने आलभिका नगरी के बाहर प्राप्तकालक चैत्य में रोह के शरीर को छोड़ा, छोड़कर भारद्वाज के शरीर में अनुप्रवेश किया, अनुप्रवेश कर अठारह वर्ष तक पांचवें 'पोट्ट-परिहार' में रहा।
छठे पोट्ट परिहार में मैंने वैशाली नगरी के बाहर कोण्डिकायन चैत्य में भारद्वाज के शरीर को छोड़ा, छोड़कर गौतम पुत्र अर्जुनक के शरीर में अनुप्रवेश किया। अनुप्रवेश कर सतरह वर्ष तक छठे 'पोट्ट-परिहार' में रहा ।
सातवें पोट्ट-परिहार में मैंने इसी श्रावस्ती नगरी के हालाहला कुंभकारी के कुंभकारापण में गौतमपुत्र अर्जुनक के शरीर को छोड़ा, छोड़कर मैंने मंखलिपुत्र गोशाल के शरीर को समर्थ, स्थिर, ध्रुव, धारण करने योग्य, सर्दी को सहन करने वाला, गर्मी को सहन करने वाला, क्षुधा को सहन करने वाला, विविध दंश, मशक आदि परीषह और उपसर्ग को सहन करने
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