Book Title: Bhagwati Sutra Part 02
Author(s): Kanakprabhashreeji, Mahendrakumar Muni, Dhananjaykumar Muni
Publisher: Jain Vishva Bharati
View full book text
________________
श. १८ : उ. ७. : सू. १४८-१५४
भगवती सूत्र भंते! क्या वे शरीर एक-जीव-स्पृष्ट हैं? अनेक-जीव-स्पृष्ट हैं। गौतम! एक-जीव-स्पृष्ट हैं, अनेक-जीव-स्पृष्ट नहीं हैं। भंते! क्या उन शरीरों का अंतर एक-जीव-स्पृष्ट है? अनेक-जीव-स्पृष्ट है? गौतम! एक-जीव-स्पृष्ट है, अनेक-जीव-स्पृष्ट नहीं है। १४९. भंते! कोई पुरुष जीव के छिन्न अवयवों के अंतराल का हाथ, पैर अथवा अंगुली से,
शलाका, काष्ठ अथवा खपाची से स्पर्श-संस्पर्श, आलेखन-विलेखन करता है अथवा किसी अन्य तीखे शस्त्र से उसका आच्छेदन, विच्छेदन करता है अथवा अग्नि से उसको जलाता है? क्या ऐसा करता हुआ वह उन जीव-प्रदेशों के लिए किंचित् आबाधा अथवा विबाधा उत्पन्न करता है? उनका छविच्छेद-अंग-भंग करता है?
यह अर्थ संगत नहीं है, उस अंतर में शस्त्र का संक्रमण (प्रवेश) प्रवेश नहीं होता। देव-असुर-संग्राम-पद १५०. क्या देवों-असुरों के बीच संग्राम होता है? क्या देवों-असुरों के बीच संग्राम होता
हां होता है। १५१. भंते! देवों-असुरों के बीच संग्राम चल रहा हो, उस समय उन देवों के कौन-सी वस्तु
प्रहरण-रत्न (शस्त्र) रूप में परिणत होती है? गौतम! वे देव जिस तृण, काष्ठ, पत्र, कंकर आदि का स्पर्श करते हैं, वे उन देवों के प्रहरण-रत्न के रूप में परिणत हो जाते हैं। जैसे देवों की वक्तव्यता वैसे ही असुरकुमारों की वक्तव्यता है? यह अर्थ संगत नहीं है। असुरकुमारों के प्रहरण-रत्न नित्य विक्रिया वाले प्रज्ञप्त हैं। देव का द्वीप-समुद्र-अनुपरिवर्तन-पद १५२. भंते! महर्द्धिक यावत् महान् ऐश्वर्यशाली के रूप में प्रख्यात देव लवणसमुद्र का
अनुपरिवर्तन कर शीघ्र आने में समर्थ है? हां, समर्थ है। १५३. भंते! महर्द्धिक यावत् महान् ऐश्वर्यशाली के रूप में प्रख्यात देव धातकी-खंड द्वीप
का अनुपरिवर्तन कर शीघ्र आने में समर्थ है? हां, समर्थ है। इसी प्रकार यावत् रुचकवर-द्वीप का अनुपरिवर्तन कर शीघ्र आने में समर्थ है? हां, समर्थ है। उससे आगे व्यतिव्रजन करते हैं, अनुपरिवर्तन नहीं करते। देवों का कर्म-क्षपण-काल-पद १५४. भंते! क्या ऐसे देव हैं, जो विद्यमान अनंत कर्मों-पुण्य-कर्म-पुद्गलों को जघन्यतः
६४८