Book Title: Bhagwati Sutra Part 02
Author(s): Kanakprabhashreeji, Mahendrakumar Muni, Dhananjaykumar Muni
Publisher: Jain Vishva Bharati
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श. १८ : उ. १० : सू. २१८-२२४
भगवती सूत्र जो धान्य-कुलथा हैं, वे धान्य-सर्षप की भांति वक्तव्य हैं। इस अपेक्षा से यह कहा जा रहा है यावत् अभक्ष्य भी हैं। २१९. आप एक हैं? आप दो हैं? आप अक्षय हैं? आप अव्यय हैं? आप अवस्थित हैं?
आप भूत, वर्तमान और भावी अनेक पर्यायों से युक्त हैं? सोमिल! मैं एक भी हूं यावत् भूत, वर्तमान और भावी अनेक पर्यायों से युक्त भी हूं। २२०. भंते! यह किस अपेक्षा से कहा जा रहा है मैं एक भी हूं यावत् भूत, वर्तमान और भावी अनेक पर्यायों से युक्त भी हूं? सोमिल! द्रव्य की दृष्टि से मैं एक भी हूं। ज्ञान और दर्शन की दृष्टि से मैं दो भी हूं। प्रदेश की दृष्टि से मैं अक्षय भी हूं, अव्यय भी हूं, अवस्थित भी हूं। उपयोग की दृष्टि से मैं भूत, वर्तमान और भावी अनेक पर्यायों से युक्त भी हूं। २२१. इस चर्चा-प्रसंग से संबुद्ध सोमिल ब्राह्मण ने श्रमण भगवान् महावीर ने वंदन-नमस्कार किया, वंदन-नमस्कार कर इस प्रकार कहा-स्कंदक की भांति वक्तव्यता यावत् यह वैसा ही है, जैसा आप कहते हैं। जैसे देवानुप्रियों के पास अनेक राजे, युवराजे, कोटवाल, मडम्ब-पति, कुटुम्ब-पति, इभ्य, सेठ, सेनापति, सार्थवाह आदि मुंड होकर अगारता से अनगारिता में प्रव्रजित होते हैं, वैसा मैं नहीं करूंगा। मैं देवानुप्रियों के पास बारह प्रकार के श्रावक-धर्म को स्वीकार करूंगा यावत् बारह प्रकार के श्रावक-धर्म का स्वीकार किया। स्वीकार कर श्रमण भगवान् महावीर को वंदन-नमस्कार किया। वंदन-नमस्कार कर जिस दिशा से आया था, उसी दिशा में लौट गया। २२२. वह सोमिल ब्राह्मण श्रमणोपासक हो गया-जीव-अजीव को जानने वाला यावत
यथापरिगृहीत-तपःकर्म के द्वारा अपने-आपको भावित करते हुए रहने लगा। २२३. अयि भंते! भगवान् गौतम ने श्रमण भगवान् महावीर को वंदन-नमस्कार किया, वंदन-नमस्कार कर इस प्रकार कहा-भंते! क्या सोमिल ब्राह्मण देवानुप्रियों के पास मुंड होकर अगारता से अनगारिता में प्रव्रजित होने में समर्थ है? यह अर्थ संगत नहीं है। शंख की भांति वैसे ही निरवशेष वक्तव्यता यावत् सब दुःखों का
अंत करेगा। २२४. भंते ! वह ऐसा ही है। भंते! वह ऐसा ही है। यावत् विहरण करने लगे।
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