Book Title: Bhagwati Sutra Part 02
Author(s): Kanakprabhashreeji, Mahendrakumar Muni, Dhananjaykumar Muni
Publisher: Jain Vishva Bharati
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श. १५ : सू. १६२-१६५
भगवती सूत्र
भगवान का आरोग्य-पद १६२. श्रमण भगवान् महावीर ने अमूर्च्छित, अगृद्ध, अग्रथित और अनासक्त होकर बिल में प्रविष्ट सर्प के सदृश अपने आपको बनाकर उस आहार को शरीर-रूप कोष्ठक में डाल दिया। १६३. श्रमण भगवान् महावीर के उस आहार को लेने पर वह विपुल रोग-आतंक शीघ्र ही
उपशांत हो गया, शरीर हृष्ट, अरोग और बलिष्ठ हो गया। श्रमण तुष्ट हो गए, श्रमणियां तुष्ट हो गईं, श्रावक तुष्ट हो गए, श्राविकाएं तुष्ट हो गईं, देव तुष्ट हो गए, देवियां तुष्ट हो गईं। देव, मनुष्य, असुर-सहित पूरा लोक तुष्ट हो गया श्रमण भगवान् महावीर हृष्ट हो गए, श्रमण भगवान् महावीर हृष्ट हो गए। सर्वानुभूति का उपपात-पद १६४. अयि भंते! भगवान् गौतम ने श्रमण भगवान् महावीर से इस प्रकार कहा- देवानुप्रिय का
अंतेवासी पूर्व जनपद का निवासी सर्वानुभूति नाम का अनगार प्रकृति से भद्र यावत् विनीत । भन्ते! तब वह मंखलिपुत्र गोशाल के तपःतेज से राख का ढेर होने पर कहां गया है? कहां उपपन्न हुआ है? गौतम! मेरा अंतेवासी पूर्व जनपद का निवासी सर्वानुभूति नाम का अनगार-प्रकृति से भद्र यावत् विनीत । मंखलिपुत्र गोशाल के तपः-तेज से राख का ढेर होने पर ऊर्ध्व चंद्र-सूर्य यावत् ब्रह्म, लांतक, महाशुक्र-कल्प का व्यतिक्रमण कर सहस्रार-कल्प में देव रूप में उत्पन्न हुआ है। वहां कुछ देवों की स्थिति अठारह सागरोपम प्रज्ञप्त है। सर्वानुभूति देव की स्थिति अठारह सागरोपम प्रज्ञप्त है। भंते! सर्वानुभूति देव उस देवलोक से आयु-क्षय, भव-क्षय और स्थिति-क्षय के अनंतर च्यवन कर कहां जाएगा? कहां उपपन्न होगा?
गौतम! महाविदेह वास में सिद्ध होगा यावत् सब दुःखों का अंत करेगा। सुनक्षत्र का उपपात-पद १६५. देवानुप्रिय का अंतेवासी कौशल जनपद-निवासी सुनक्षत्र नाम का अनगार-प्रकृति से
भद्र यावत विनीत। भंते! मंखलिपत्र गोशाल के तपःतेज से परितापित होकर कालमास में मृत्यु को प्राप्त कर वह कहां गया है? कहां उपपन्न हुआ है? गौतम! मेरा अंतेवासी सुनक्षत्र नाम का अनगार-प्रकृति से भद्र यावत् विनीत। मंखलिपुत्र गोशाल के तपःतेज से परितापित होने पर जहां मैं था, वहां आया, आकर वंदन-नमस्कार किया। वंदन-नमस्कार कर स्वयं ही पांच महाव्रतों का आरोपण किया। आरोपण कर श्रमण-श्रमणियों से क्षमायाचना की, क्षमायाचना कर आलोचना-प्रतिक्रमण कर, समाधि को प्राप्त होकर कालमास में मृत्यु को प्राप्त कर ऊर्ध्व चंद्र-सूर्य यावत् आनत-प्राणत, आरण-कल्प का व्यतिक्रमण कर अच्युत-कल्प में देवरूप में उपपन्न हुआ है। वहां कई देवों की स्थिति बाईस सागरोपम प्रज्ञप्त है। वहां सुनक्षत्र देव की स्थिति बाईस सागरोपम प्रज्ञप्त है।
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