Book Title: Bhagwati Sutra Part 02
Author(s): Kanakprabhashreeji, Mahendrakumar Muni, Dhananjaykumar Muni
Publisher: Jain Vishva Bharati
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श. १७ : उ. २ : सू. ३१-३६
३१. भंते! यह इस प्रकार कैसे हैं ?
गौतम ! अन्ययूथिक, जो इस प्रकार आख्यान करते हैं यावत् जो ऐसा कहते हैं, वे मिथ्या कहते हैं। गौतम ! मैं इस प्रकार आख्यान यावत् प्ररूपणा करता हूं-प्राणातिपात यावत् मिथ्यादर्शन - शल्य में जो वर्तमान है, वही जीव है, वही जीवात्मा है यावत् अनाकार- उपयोग में जो वर्तमान है वही जीव है, वही जीवात्मा है 1
रूप-अरूपी पद
३२. महर्द्धिक यावत् महान् ऐश्वर्यशाली के रूप में प्रख्यात देव पहले रूपी होकर अरूपी विक्रिया करने में समर्थ है ?
गौतम ! यह अर्थ संगत नहीं है।
भगवती सूत्र
३३. भंते! यह किस अपेक्षा से कहा जा रहा है - महर्द्धिक यावत् महान् ऐश्वर्यशाली के रूप में प्रख्यात देव पहले रूपी होकर अरूपी विक्रिया करने में समर्थ नहीं है ?
गौतम ! मैं जानता हूं, मैं देखता हूं, मैं यह बोध करता हूं, मैं यह अभिसमन्वागत करता हूं। मैंने यह जाना है, मैंने यह देखा है, मैंने यह बोध किया है, मैंने यह अभिसमन्वागत किया है - जो तथागत जीव सरूपी, कर्म - सहित, राग-सहित, वेद- सहित, मोह- सहित, लेश्या - सहित, शरीर सहित है, जो जीव इस शरीर से विप्रमुक्त नहीं है उसका इस प्रकार प्रज्ञापन किया जाता है, जैसे - कालापन यावत् शुक्लत्व, सुरभि - गन्धत्व यावत् दुरभि-गंधत्व, तिक्तता यावत् मधुरता, कर्कशता यावत् रूक्षता । गौतम ! इस अपेक्षा से यह कहा जा रहा है—महर्द्धिक यावत् महान् ऐश्वर्यशाली के रूप अरूपी विक्रिया करने में समर्थ नहीं हैं।
प्रख्यात देव पहले रूपी होकर
३४. भंते! वही जीव पहले अरूपी होकर रूपी विक्रिया करने में समर्थ है ?
यह अर्थ संगत नहीं है ।
३५. भंते! यह किस अपेक्षा से कहा जा रहा है वही जीव पहले अरूपी होकर रूपी विक्रिया करने समर्थ नहीं है ?
गौतम ! मैं यह जानता हूं, मैं यह देखता हूं, मैं यह बोध करता हूं, यह अभिसमन्वागत करता हूं। मैंने यह जाना है, मैंने यह देखा है, मैंने यह बोध किया है, मैंने यह अभिसमन्वागत किया है - जो तथागत जीव अरूपी कर्म-रहित, राग-रहित, वेद-रहित, मोह-रहित, लेश्या - रहित, शरीर-रहित है, जो जीव इस शरीर से विप्रमुक्त है उसका इस प्रकार प्रज्ञापन नहीं किया जाता, जैसे- कालापन यावत् शुक्लता, सुरभि-गंधत्व यावत् दुरभि - गंधत्व, तिक्तता यावत् मधुरता, कर्कशता यावत् रूक्षता । गौतम ! इस अपेक्षा से यह कहा जा रहा है - वही जीव पहले अरूपी होकर रूपी विक्रिया करने में समर्थ नहीं है । ३६. भंते! वह ऐसा ही है। भंते! वह ऐसा ही है ।
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