Book Title: Bhagwati Sutra Part 02
Author(s): Kanakprabhashreeji, Mahendrakumar Muni, Dhananjaykumar Muni
Publisher: Jain Vishva Bharati
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भगवती सूत्र
श. १५ : सू. १७१-१७५
नाम होना चाहिए देवसेन देवसेन । तब उस राजा महापद्म का दूसरा नाम 'देवसेन' होगा । १७२. किसी दिन राजा महापद्म के विमल शंखतल के समान श्वेत चतुर्दन्त हस्ति रत्न उत्पन्न होंगे। तब राजा देवसेन विमल शंख-तलके समान श्वेत चतुर्दन्त हस्ति - रत्न पर आरूढ़ होकर शतद्वार नगर के बीचोंबीच होते हुए बार-बार प्रवेश और निष्क्रमण करेंगे। शतद्वार नगर में अनेक राजा, ईश्वर, तलवर, माडम्बिक, कौटुम्बिक, इभ्य, श्रेष्ठी, सेनापति, सार्थवाह आदि दूसरे को बुलाएंगे, बुलाकर इस प्रकार कहेंगे- देवानुप्रियो ! हमारे राजा देवसेन के विमल शंख तल के समान श्वेत चतुर्दन्त हस्ति रत्न उत्पन्न हुआ है, इसलिए देवानुप्रियो ! हमारे राजा देवसेन का तीसरा नाम विमलवाहन - विमलवाहन होना चाहिए। तब से उस देवसेन राजा का तीसरा नाम 'विमलवाहन' होगा ।
१७३. राजा विमलवाहन किसी दिन श्रमण-निर्ग्रन्थों के प्रति मिथ्यात्व से विप्रतिपन्न होगा- वह अनेक श्रमण-निर्ग्रन्थों के प्रति आक्रोश करेगा, अनेक श्रमण-निर्ग्रन्थों का उपहास करेगा, अनेक श्रमण-निर्ग्रन्थों का तिरस्कार करेगा, अनेक श्रमण-निर्ग्रन्थों की निर्भर्त्सना करेगा, अनेक श्रमण-निर्ग्रन्थों को बांधेगा, अनेक श्रमण-निर्ग्रन्थों को कारागार में डाल देगा, अनेक श्रमण-निर्ग्रन्थों का छविच्छेद करेगा, अनेक श्रमण-निर्ग्रन्थों को पीटेगा, अनेक श्रमण-निर्ग्रन्थों को मारेगा, अनेक श्रमण-निर्ग्रन्थों के वस्त्र, पात्र, कंबल, पादप्रौञ्छन का आच्छेदन, विच्छेदन, भेदन और अपहरण करेगा, अनेक श्रमण-निर्ग्रन्थों के भक्त पान का विच्छेद करेगा, अनेक श्रमण-निर्ग्रन्थों को नगर-रहित करेगा, अनेक श्रमण-निर्ग्रन्थों को निर्वासित करेगा।
१७४. शतद्वार नगर के अनेक राजा, ईश्वर, तलवर, माडम्बिक, कौटुम्बिक, इभ्य, श्रेष्ठी, सेनापति, सार्थवाह आदि एक दूसरे को बुलाएंगे, बुलाकर इस प्रकार कहेंगे- देवानुप्रियो ! राजा विमलवाहन श्रमण-निर्ग्रन्थों के प्रति मिथ्यात्व से विप्रतिपन्न हो गया है- अनेक श्रमण-निर्ग्रन्थों के प्रति आक्रोश करता है यावत् निर्वासित करता है - इसलिए देवानुप्रियो ! न यह हमारे लिए श्रेय है, न राजा विमलवाहन के लिए श्रेय है, न यह राज्य, राष्ट्र, सेना, वाहन, पुर, अन्तःपुर और जनपद के लिए श्रेय है, क्योंकि राजा विमलवाहन मिथ्यात्व से विप्रतिपन्न हो गया है। इसलिए देवानुप्रियो ! यह श्रेय है कि हम राजा विमलवाहन को इस अर्थ की जानकारी दें, इस प्रकार एक दूसरे के पास इस अर्थ को स्वीकार करेंगे, स्वीकार कर जहां राजा विमलवाहन है, वहां आएंगे, वहां जाकर दोनों हथेलियों से निष्पन्न संपुट आकार वाली दसनखात्मक अञ्जलि को घुमाकर मस्तक पर टिकाकर विमलवाहन राजा को जय- विजय के द्वारा वर्धापित करेंगे, वर्धापित कर इस प्रकार कहेंगे- देवानुप्रिय ! श्रमण-निर्ग्रन्थों के प्रति मिथ्यात्व से विप्रतिपन्न होकर आप अनेक श्रमण-निर्ग्रन्थों के प्रति आक्रोश करते हैं यावत् अनेक श्रमण-निर्ग्रन्थों को निर्वासित करते हैं, इसलिए यह न देवानुप्रियों के लिए श्रेय है, न हमारे लिए श्रेय है, न हमारे राज्य यावत् जनपद के लिए श्रेय है, क्योंकि देवानुप्रिय ! (आप) श्रमण-निर्ग्रन्थों के प्रति मिथ्यात्व से विप्रतिपन्न हो, इसलिए विराम लो, देवानुप्रिय ! इस अर्थ को मत करो ।
१७५. अनेक राजा, ईश्वर, तलवर, माडम्बिक, कौटुम्बिक, राज्य, श्रेष्ठी, सेनापति, सार्थवाह
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