Book Title: Bhagwati Sutra Part 02
Author(s): Kanakprabhashreeji, Mahendrakumar Muni, Dhananjaykumar Muni
Publisher: Jain Vishva Bharati
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श. १४ : उ. ४,५ : सू. ६०-६८
भगवती सूत्र
अविग्रह-गति-समापन्नक। विग्रह-गति-समापनक नैरयिक की भांति वक्तव्य हैं। यावत् वह शस्त्र से आक्रान्त नहीं होता। अविग्रह-गति-समापनक पंचेन्द्रिय-तिर्यक्योनिक दो प्रकार के प्रज्ञप्त हैं, जैसे-ऋद्धिप्राप्त, अऋद्धिप्राप्त। जो ऋद्धिप्राप्त पंचेन्द्रिय-तिर्यग्योनिक हैं, उनमें कोई अग्निकाय के बीचोंबीच होकर जाता है, कोई नहीं जाता। जो बीचोंबीच होकर जाता है क्या वह जलता है? यह अर्थ संगत नहीं है। वह शस्त्र से आक्रान्त नहीं होता। जो पंचेन्द्रिय-तिर्यग्योनिक ऋद्धि-प्राप्त नहीं है, उनमें कोई अग्निकाय के बीचोंबीच होकर जाता है, कोई नहीं जाता। जो बीचोंबीच होकर जाता है, क्या वह जलता है? हां, जलता है। इस अपेक्षा से यह कहा जा रहा है यावत् कोई नहीं जाता। इसी प्रकार मनुष्य की वक्तव्यता। वाणमंतर, ज्योतिष्क और वैमानिक असुरकुमार की भांति वक्तव्य हैं। प्रत्यनुभव-पद ६१. नैरयिक दस स्थानों का प्रत्यनुभव करते हुए विहार करते हैं, जैसे-अनिष्ट शब्द, अनिष्ट रूप, अनिष्ट गंध, अनिष्ट रस, अनिष्ट स्पर्श, अनिष्ट गति, अनिष्ट स्थिति, अनिष्ट लावण्य,
अनिष्ट यशोकीर्ति और अनिष्ट उत्थान, कर्म, बल, वीर्य, पुरुषकार, पराक्रम। ६२. असुरकुमार दस स्थानों का प्रत्यनुभव करते हुए विहार करते हैं, जैसे-इष्ट शब्द, इष्ट रूप यावत् इष्ट उत्थान, कर्म, बल, वीर्य पुरुषकार, पराक्रम। इसी प्रकार यावत् स्तनितकुमार की
वक्तव्यता। ६३. पृथ्वीकायिक छह स्थानों का प्रत्यनुभव करते हुए विहार करते हैं, जैसे–इष्ट-अनिष्ट स्पर्श, इष्ट-अनिष्ट गति, इसी प्रकार यावत् पुरुषकार, पराक्रम। इसी प्रकार यावत् वनस्पतिकायिक
की वक्तव्यता। ६४. द्वीन्द्रिय सात स्थानों का प्रत्यनुभव करते हुए विहार करते हैं, जैसे–इष्ट-अनिष्ट रूप, शेष
एकेन्द्रिय की भांति वक्तव्य है। ६५. त्रीन्द्रिय जीव आठ स्थानों का प्रत्यनुभव करते हुए विहार करते हैं, जैसे–इष्ट-अनिष्ट गंध,
शेष द्वीन्द्रिय की भांति वक्तव्य है। ६६. चतुरिन्द्रिय जीव नव स्थानों का प्रत्यनुभव करते हुए विहार करते हैं, जैसे-इष्ट-अनिष्ट
रूप. शेष त्रीन्द्रिय की भांति वक्तव्य है। ६७. पंचेन्द्रिय-तिर्यक्योनिक जीव दस स्थानों का प्रत्यनुभव करते हुए विहार करते हैं,
जैसे–इष्ट-अनिष्ट शब्द यावत् पुरुषकार, पराक्रम। इसी प्रकार मुनष्य की वक्तव्यता। वाणमंतर, ज्योतिष्क और वैमानिक असुरकुमार की भांति वक्तव्य हैं। देव का उल्लंघन-प्रलंघन-पद ६८. भंते! महान् ऋद्धि यावत् महान् ऐश्वर्यशाली के रूप में प्रख्यात देव क्या बाहरी पुद्गलों
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