Book Title: Bhagwati Sutra Part 02
Author(s): Kanakprabhashreeji, Mahendrakumar Muni, Dhananjaykumar Muni
Publisher: Jain Vishva Bharati
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भगवती सूत्र
श. १५ : सू. ३८-४३
नगर था, वहां आया, आकर राजगृह नगर के उच्च, नीच तथा मध्यम कुलों में सामुदानिक भिक्षाचर्या के लिए घूमते हुए गृहपति सुनंद के घर में मैंने अनुप्रवेश किया।
३९. गृहपति सुनंद ने मुझे आते हुए देखा, देखकर हृष्ट-तुष्ट चित्त वाला, आनंदित, नंदित, प्रीतिपूर्ण - -मन वाला, परम सौमनस्य युक्त और हर्ष से विकस्वर - हृदय वाला हो गया। वह शीघ्र आसन से उठा, उठकर पादपीठ से नीचे उतरा, उतरकर पादुका को खोला, खोलकर एक पट वाले वस्त्र से उत्तरासंग किया, उत्तरासंग कर दोनों हाथ जोड़े हुए सात-आठ कदम मेरे सामने आया, सामने आकर मुझे दायीं ओर से प्रारम्भ कर तीन बार प्रदक्षिणा की, प्रदक्षिणा कर वंदन-नमस्कार किया, वंदन - नमस्कार कर मैं महावीर को विपुल सर्व रस- युक्त भोजन से प्रतिलाभित करूंगा, यह सोचकर तुष्ट हुआ, प्रतिलाभित करता हुआ भी तुष्ट हुआ, प्रतिलाभित करके भी तुष्ट हुआ ।
४०. उस गृहपति सुनंद ने द्रव्य शुद्ध, दाता शुद्ध, प्रतिग्राहक शुद्ध - इस प्रकार त्रिविध, त्रिकरण से शुद्धदान के द्वारा मुझे प्रतिलाभित कर देवायुष्य का निबंध किया, संसार को परीत किया, उस समय उसके घर में ये पांच दिव्य प्रकट हुए, जैसे- रत्नों की धारा निपात-वृष्टि, पांच वर्ण वाले फूलों की वृष्टि, ध्वजा फहराने लगी, देवदुन्दुभियां बजीं, आकाश के अंतराल में 'अहो ! दानम् अहो! दानम्' की उद्घोषणा हुई ।
४१. राजगृह नगर के शृंगाटकों, तिराहों, चौराहो, चौहटों, चार द्वार वाले स्थानों, राजमार्गों और मार्गों पर बहुजन परस्पर इस प्रकार आख्यान, भाषण, प्रज्ञापना, एवं प्ररूपण करते हैं - देवानुप्रिय ! गृहपति सुनंद धन्य है, देवानुप्रिय ! गृहपति सुनंद कृतार्थ है, देवानुप्रिय ! गृहपति सुनंद कृतपुण्य है, देवानुप्रिय ! गृहपति सुनंद कृतलक्षण है, देवानुप्रिय ! गृहपति सुनंद ने इहलोक और परलोक दोनों को सुधार लिया है, देवानुप्रिय ! गृहपति सुनंद ने मनुष्य जन्म और जीवन का फल अच्छी तरह से प्राप्त किया है, जिस गृहपति सुनंद के घर में तथारूप साधु के साधुरूप में प्रतिलाभित होने पर ये पांच दिव्य प्रकट हुए, जैसे - रत्नों की धारा निपात-वृष्टि यावत् आकाश के अंतराल में 'अहो! दानम् अहो ! दानम्' की उद्घोषणा । इसलिए वह धन्य, कृतार्थ, कृतपुण्य, कृतलक्षण है, उसने इहलोक और परलोक दोनों को सुधारा है, गृहपति सुनंद ने, गृहपति सुनन्द ने मनुष्य जन्म और जीवन का अच्छा फल प्राप्त किया है।
४२. बहुजन के पास इस अर्थ को सुन कर, अवधारण कर, मंखलिपुत्र गोशाल के मन में संशय एवं कुतूहल उत्पन्न हुआ, जहां गृहपति सुनंद का घर था, वहां आया, आ कर गृहपति सुनंद के घर रत्नों की धारा निपात वृष्टि तथा पांच वर्ण वाले फूलों की वृष्टि को देखा । गृहपति सुनंद के घर से मुझे प्रतिनिष्क्रमण करते हुए देखा, देखकर हृष्ट-तुष्ट हुआ, जहां मैं था, वहां आया, आ कर मुझे दायीं ओर से प्रारम्भ कर तीन बार प्रदक्षिणा की, प्रदक्षिणा कर वंदन - - नमस्कार किया, वंदन - नमस्कार कर मुझसे इस प्रकार बोला- भंते! आप मेरे धर्माचार्य हैं। मैं आपका धर्मान्तेवासी हूं।
४३. गौतम ! मंखलिपुत्र गोशाल के इस अर्थ को मैंने आदर नहीं दिया, स्वीकार नहीं किया, मैं मौन रहा ।
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